चश्म-ए-चिराग़ जलाए मैंने - ग़ज़ल - महेश 'अनजाना'

चश्म-ए-चिराग़ जलाए मैंने,
घर ना जले बचाए मैंने।

किसी ने चिराग़ जो बुझाई,
आदतन फिर जलाए मैंने।

तूफ़ाँ ने क़यामत जो ढाया,
दामन में है समाए मैंने।

हर शीशा आयना नहीं है,
ख़ुद अक्स को बताए मैंने।

कल तक जो ज़ेहन में रहे,
अब उनको बिसराए मैंने।

रोज़ ख़त लिख-लिख कर,
राज़-ए-दिल बताए मैंने।

इश्क़ की गलियों में ख़ाक,
'अनजाना' पत्थर चलाए मैंने।

महेश 'अनजाना' - जमालपुर (बिहार)

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