सावन की बरखा में
तन-मन झूम रहा है
धरा को मानो आकाश
बूँदों से चूम रहा है
चिंताओं की चादर ओढ़े
कृषक बैठा था
बरखा की बूँदें देख
अब नव स्वप्न बुन रहा है
जब जब गिरते
बूँदों के मोती पत्तों पर
तब प्रकृति रचित संगीत
संसार सुन रहा है
हरी-भरी फ़सलों को देख
कृषक आज कान्हा बनकर
मस्ती में घूम रहा है।
डॉ॰ रोहित श्रीवास्तव 'सृजन' - जौनपुर (उत्तर प्रदेश)