कान्हा आयो रे - कविता - गोकुल कोठारी

ठुमक-ठुमक पैजनिया, मनमोहनी मुस्कान लियो अधरा में,
छनक-छनक कंकणी बाजत ताहि कमलजात करा में।
छप्पन भोग सुहावै नहिं तेहि को दधि माखन भायो,
धन्य-धन्य मातु जसुमति, बाल रूप में प्रभु आयो।
सर मोर मुकुट उर शोभित माला,
बलहारी लियो सगरे ब्रज बाला,
जो प्रभु सगरे जग के पालक,
लोग कहें उनको नंदलाला,
कान्हा नाम पायो धरा में माँ जसुमति का वो काला।
किलकारी सुनै, ललचाई रही खेलन आवै सबै सखियाँ,
काजल टीक लगावै जसुमति, वाको सुहावै न तिन की अँखियाँ।
बाल रूप दिखायो हरी, सुर नर मुनि सगरे हरषायो,
कोयल कीर सुमंगल गावै आज ब्रज में कान्हा आयो।
आज ब्रज में कान्हा आयो।

गोकुल कोठारी - पिथौरागढ़ (उत्तराखंड)

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