झरना - कविता - सतीश शर्मा 'सृजन'

झर झर झर झरता झरना,
झरने का है ये कहना–
चट्टानों की छाती पर चढ़,
रोड़ों से कभी तनिक न डर।
बाधाओं में न रुक जाना,
बहते जाना,
सहते जाना,
चलते जाना।
कहीं झर झर झर,
कहीं कल कल कल।
बहता रहता है पल पल पल,
सन्देश एक बस चल चल चल।
कहीं ऊँचा तो कहीं नीचा है,
कहीं वक्र गति कहीं सीधा है।
कंकड़ पत्थर चट्टानों में,
चौड़े या सूक्ष्म मुहाने में।
अवरोधों से टकराता है,
तब भी नित बहते जाता है।
सूनापन फिर भी है चलता,
अपना मरहम ख़ुद है मलता।
न खिन्न कभी न हर्षित है,
औरों के लिए समर्पित है।
सागर में नहीं समाता है,
तब तक ये बहता जाता है।
यदि जीवन में है कुछ करना,
देखो क्या कहता है झरना।

सतीश शर्मा 'सृजन' - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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