युद्ध रोमांच नहीं होता - कविता - अपराजितापरम

समाचारों की होड़ में,
चल रहा है, अटकलों और सरगर्मियों का दौर 
युद्ध को ‘मेगा शो’ बना 
प्रसिद्धि की चाहत में सीमाएँ लाँघती शब्दावली 
उत्तेजना में आपा खोते 
मानवता के विनाश को परोसते 
भूल जाते हैं,
युद्ध रोमांच नहीं होता...!
आकाश सिहरातीं, ध्वस्त आबादियाँ 
जहाँ बर्बरता की चादर में, उपलब्धियों की राख है, 
पसर गई है मौत सी ख़ामोशी 
रह-रह कर धधकते शोलों की गूँज में 
डरे-सहमे मासूम लोगों की चीत्कार में 
कराहती है मानवता 
युद्ध रोमांच नहीं होता...!
पल-पल बढ़ती मौत की धुँध के बीच 
डटे हैं, चंद लोग 
अपनी मिट्टी के विश्वास की ख़ातिर 
ढूँढ़ना चाहते हैं वह गुँजाइश 
जो इंसान को इंसान का ग्रास बनने से बचा सके 
दहशत भरी आँखों में भर सकें, जीवन की उम्मीद...!
युद्ध रोमांच नहीं होता।

अपराजितापरम - हैदराबाद (तेलंगाना)

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