कान्हा बिना - कविता - अनिकेत सागर

कान्हा बिना व्यर्थ जीवन, व्यर्थ है सारी सृष्टि।
कान्हा बिना अंधकार सारा, नहीं है कोई दृष्टि।।

महका है सारा संसार जिससे पूरा यह ब्रज,
लगा लूँ माथे से मुरली मनोहर की चरण रज।
पावन पावन हुईं चरण स्पर्श से धरती माता,
यहीं नारायण यहीं कृष्ण यहीं जगत के दाता।
कान्हा बिना हो नहीं सकती कभी प्रेम की वृष्टि।।

कान्हा बिना व्यर्थ जीवन, व्यर्थ है सारी सृष्टि।
कान्हा बिना अंधकार सारा, नहीं है कोई दृष्टि।।

अदभूत लीलाओं के धनी है कृष्ण मुरारी,
दीवानी है राधा और दीवानी दुनिया सारी।
मैया यशोदा नटखट से होती बहुत ही तंग,
पर देख लीलाएँ प्रभु की होती उसमें ही दंग।
कान्हा बिना हो नहीं सकती धरती पर समृद्धि।।

कान्हा बिना व्यर्थ जीवन, व्यर्थ है सारी सृष्टि।
कान्हा बिना अंधकार सारा, नहीं है कोई दृष्टि।।

स्वर छेड़ें मुरली के रचावै संग राधा के रास,
लतापता भी डोले बन के गोपियाँ तब ख़ास।
भक्ति में होकर लीन किया जीवन प्रभु अर्पण,
आप ही मेरे मार्गदर्शक और आप ही हो दर्पण।
कान्हा बिना मन को भी मिलती है नहीं संतुष्टि।।

कान्हा बिना व्यर्थ जीवन, व्यर्थ है सारी सृष्टि।
कान्हा बिना अंधकार सारा, नहीं है कोई दृष्टि।।

अनिकेत सागर - नाशिक (महाराष्ट्र)

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