हाथ - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

हाथ तेरे रहें सलामत,
ये हैं श्रम के हथियार।
जिनके हाथ नहीं हैं,
उनसे पूछो कि
कैसे चलती है,
ज़िंदगी की पतवार।
जब दो हाथ मिलते है तो
दोस्ती का लेती है रूप।
हाथों से ही बनता है
प्रेम वियोग का स्वरूप।
हाथ उठ जाए तो
दोषी को इंगित करता है।
हाथ का पंजा जब
मुट्ठी बन जाए सज़ा में
परिणित होती है।
हाथों का ही है कमाल
कि होते हैं कई नए-नए अविष्कार।
हाथों से ही अच्छे बुरे व्यसनों का
होता है पालन।
हाथों से ही पुण्य धर्म का
लोक परलोक का
आरंभ और समापन।
दायाँ हाथ सहोदर का
तो बायाँ हाथ वामांगिनी लेती सँवार।
हाथ तेरे रहें सलामत
ये हैं श्रम के हथियार।
जब दो हाथ रहें खाली
तो निठल्लो का होता जग में प्रचार।
जब दो हाथों को
मिल जाए काम तो होती है 
प्रसन्नता अपार।
हाथ पसारे आया जग में
हाथ पसारे जाएगा,
ऐसा ज्ञानी कहते हैं।
कुछ मजबूरियाँ
होती हैं जो,
नर, नारी हाथों
की निर्दयी
मार सहते हैं।
हे प्रभु मैं देश की सेवा कर सकूँ,
रहे सलामत मेरे दोनों पाणी।
जान चली जाए
पर न जाने पाए
मेरे देश का पानी।
हाथों से ही इस धरा और नई
दुल्हन का होता है शृंगार।
हाथ तेरे रहें सलामत
ये हैं श्रम के हथियार।

रमेश चन्द्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

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