सूखा पत्ता हूँ उपवन का - कविता - डॉ. कमलेंद्र कुमार श्रीवास्तव

इंतज़ार मैं करता रहता,
सुबह, दोपहर और शाम।
अब नही कोई चिट्ठी आती 
और ना आता पैग़ाम।।
कोई याद ना करता मुझको,
और ना कोई फ़ोन करे।
सूखा पत्ता हूँ उपवन का,
और पत्ते है हरे भरे।।
नन्हे-नन्हे प्यारे बच्चे,
है उपवन के फूल।
मैं भी उपवन का सदस्य हूँ,
लोग गए सब भूल।।
तीव्र हवा का झोंका मुझको,
जाने कब ले जाएगा।
मेरी भी सुध ले लो कोई,
फिर पीछे पछताएगा।।
मेरा जीवन साथी पत्ता,
उड़कर जाने कहाँ गया।
मैं ढूँढ़ ना पाया उसको,
मेरा उपवन छोड़ गया।।
सभी रंगे हैं अपने रंग में,
मैं हुआ बेरंग।
कमरा काल कोठरी लगता,
कोई न मेरे संग।।

डॉ॰ कमलेंद्र कुमार श्रीवास्तव - जालौन (उत्तर प्रदेश)

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