गाँव की औरतें - कविता - यश वट

गाँव की औरतें नहीं लगाती सनस्क्रीन,
वे पायल, बाली, काँटा, नथनी, बिंदी,
क्लिनिक प्लस और थोड़ा सा पाउडर लगा,
लड़ लेती है धूप से यूँ ही,
दिन में आठ बार आँगन का झाड़ू लगाती है गाँव की औरतें,
सूरज के साथ उठ, कपड़े धो कर सूरज पर ही सुखा देती है गाँव की औरतें,
चाय के कप को मग्गे बोलती है गाँव की औरतें,
खाली घर में भी थोड़े से सामान को करीने से सजा कर रखती है गाँव की औरतें,
कमरे की दीवारों पर दिव्या भारती, श्री देवी के पोस्टर चिपकाती है गाँव की औरतें,
होली-दीवाली, ताँखों पर अख़बार बिछा, काँच के गिलासों की मंज़िल बनाती है गाँव की औरतें,
दस-दस मील दूर पढ़ने जाते है गाँव की औरतों के बच्चे,
उनके लिए थैली में चार रोटियाँ, प्याज, चने और आचार बाँध देती है गाँव की औरतें,
दोपहर में सब काम निपटा कर,
ख़ुद की थकान के टीले पर चटाई बिछा सो जाती है गाँव की औरतें,
शहरों का रोग लगने के बाद,
गाँवों में बहुत कम बची है अब
गाँवों की औरतें।

यश वट - उज्जैन (मध्यप्रदेश)

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