हिमालय की गोद में - कविता - राम प्रसाद आर्य

बरफ़ रजाई ओढे, ये परवत जाल है।
धूप की तपन फेल, आग की अगन फेल, 
बरफ़ी बयारों में भी अजब उबाल है।। 

बरफ़ पडे़ फर-फर, तन कंपे थर-थर,
बरफ़ी बाटों से बाहर निकासी मुहाल है।
बरफ़ ही खाना, पीना, ओढना, बिछौना है, 
गरमी में मौज ,जाडों जीना बदहाल है।। 

पौष, माघ शीत ऋतु, उसपे कोरोना काल, 
बरफ़ में दबा आज, धरा का बाल-बाल है। 
स्वदेशी घरों में क़ैद, बिदेशी बरफ़ से खेले, 
धरा की धवलता ये आज बेमिसाल है।। 

चाँदी की मढी सी लगे ये परवत हिमालय माल,
उषा में चमक, रजनी रजतता कमाल है।
भानु की भभक हारी, चाँद चाँदनी बिसारी,  
मुकुट सा हिमाल ये लगे भारत भाल है।।

शिव की तपस्थली ये, पावन कैलाश यहीं, 
सीमा पर अरि की न गले कभी दाल है। 
अहोभाग्य मेरा, जो मैं हिमालय की गोद में हूँ, 
शोक ना, शिकवा ना, ना मन में कोई मलाल है।। 

राम प्रसाद आर्य - जनपद, चम्पावत (उत्तराखण्ड)

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