अंतःकरण का संवाद - लेख - रामासुंदरम

लोक सभा का मानसून सत्र चल रहा था। आरोपों एवं प्रत्यारोपों की झड़ी लगी थी। जिस भी मान्यवर को देखो वह हाव भाव दिखता, बोलता या फिर बुदबुदाता नज़र आता था। सभी मेंबरान उत्तेजित थे। स्पीकर महोदय शांत थे। कुछ कर गुज़रने का मन कर रहा था, पर नियमों एवम अनुशासन से बंधे थे। जब सभी मान्यवर ऐसा आचरण करें बस एक ही व्यवस्था दिखती हैं... सभा को स्थगित करने की। किंतु उसके लिए भी कुछ विचार तो करना ही पड़ता है।

इधर दर्शक दीर्घा में सबसे आगे की पंक्ति में अधेड़, अनुभवी किन्तु चुटैल आवाम बैठी थी... एकाग्रता से कार्रवाई देख रही थी। कुछ कौतूहल कुछ उकताहट अपने ज़ेहन में लपेटे वह नज़ारा देख रही थी। बगल में, आँखों में सपने सँजोए, जम्हूरियत थी। माननीयों के आचरण से क्षुब्धता उनके चेहरे से टपक रही थी।

ऊब कर आवाम ने जम्हूरियत के कोहनी मारी और बोली "चल उठ बेटी, अब नही बैठा जा रहा यहाँ। अरे, ये चिल्लाए जा रहे हैं और कहते हैं कि बहस हो रही है। हम दोनों को तो लगता है भूल ही गए।"

दोनों को बात करता देख मार्शल ने टोका तो आवाम थोड़ा और ठनकी। फिर कुछ बिदकती सी सीट से उठी जैसे उसने सदन से रुख़्सत का निर्णय ले लिया हो। उधर जम्हूरियत कार्रवाई में तन्मय होने के बावजूद भी आवाम के बॉडी लैंग्वेज समझ चुकी थी। उसने भी अपने को समेटते हुए नज़रों ही नज़रों में वापिसी हेतु सहमति जताई। फिर बिना समय गंवाए दोनों सदन से उठकर चल पड़ीं।

आवाम, कुछ लंगड़ाती, कराहती चल रही थी। बड़े घाव थे उसके शरीर मे। कुछ लूट-खसोट के, कुछ घुसपैठियों के, कुछ मोब लीनचिंग के तो कुछ जबरन ईव टीसिंग से लेकर...! और भाई, चोट लगी हो तो बदन में पीड़ा तो होगी ही है ना।  
जम्हूरियत, सहारा दे कर, आवाम को धीरे धीरे ले जा रही थी। परिसर से बाहर निकलते ही, जम्हूरियत खीज कर आवाम से बोली "अम्मा, तुम भी न, कुछ समझती नही हो। थोड़ी देर और नज़ारा देख लेती, तो क्या हो जाता।।"
"क्या देख लेती। बवाल, बवंडर, नोक-झोंक। इन्ही के लिए हमने उन्हें यहाँ भेजा था? ये सब तो बाहर होता ही रहता है। क्या इसे देखने के लिए ही हम दोनो इत्ता लंबा सफ़र कर यहाँ तक आए। अरे, ये हंगामा करें तो माननीय और हम ज़रा सा हिले डुले... या चलो थोड़ा बतिया भर लिए  तो ये मुआ... क्या कहिते हैं... मार्शल... हमे आँखें तरेरता है। ये कौनो बात हुई। अरे सदन और बाहर के झमेले में कुछ तो फ़र्क़ दिखना ही चाहिए।"

"तुम तो किताब की कायल हो अम्मा। सोंचती हो, जो लिखा है वही होना चाहिए और फिर इसी तरह आकलन करती हो।"
"और क्या। किताबें ग़लत हैं क्या।"

"अम्मा, किताबें ग़लत नहीं, पर पुरानी तो हो जाती हैं।"
"क्या मतलब? आवाम को लगा कि नेताओं की तरह जम्हूरियत भी हाथ से निकल गई। नेता तो फिर भी चंद महीनों में फिर आएँगे, पर बिगड़ैल बेटी का क्या। अगर रूठ गई या फिर सरक गई तो उसका (आवाम) बचा-खुचा तुरुप का पत्ता भी हाथ से चला जाएगा और फिर कौन पूछता है उसे। सदियों से यही कहानी चली आ रही है। 
पर जम्हूरियत तो अपनी माँ पर जान छिड़कती थी। उसने समझाया,
"किताबें छोड़, दीवारों की इबारत पढ़ा करो मेरी अम्मा। सीख जाओगी कहाँ दुलत्ती मारनी है, कहाँ तीतर लड़ाने हैं और कहाँ ईसब घोल पिलाना है।"
"अरे, तू इत्ता जानती है? किताब पढ़ने में तो आँखें दुखती हैं मेरी, दीवार कहाँ कहाँ ढूँढूँगी"
"मैं काहे के लिए हूँ। काहे घबराती हो... तनिक स्मार्ट बनो... फिर देखो इनका रुख़।
खीजती सी आवाम कुछ रुक कर बोली" क्या लबडिया रही हो... ठोंकी तो मैं जाती हूँ, चाहे चुनाव के पहले या फिर बाद में। तेरा क्या... दीवार की इबारत तो तू ही पढ़।"
 
जम्हूरियत बोली "दीवारों पर इबारत लिखी नही होती है, छिपी होती है। इन्हें पढ़ने का इल्म होना चाहिए, डिग्री नही। दूसरे, माँ सुनो, दुलत्ती लगाने का मौक़ा मैं दिला सकती हूँ, धोबी पाट ऐसा लगवा सकती हूँ कि कोई मुआ, अखाड़े को देखना तो छोड़ो... लँगोट लगाना भी भूल जाए। पर तुम चुटैल किसी और कि वजह से नही हो। तुम ख़ुद ज़िम्मेदार हो... इन ख़ून के धब्बों की, कपड़ों पर दिखाई देने वाले पैबन्दों और बेचारी सी दिखाई देने वाली हुलिया की।"
अवाम हक्का बक्का रह गई, बोली "ये तुम क्या कह रही हो बिटिया?"
जम्हूरियत को लगा, लोहा गरम है।

फिर उसने यों हथौड़ा चलाया। बोली "अगर तुम अवाम हो तो अवाम हो कर रहो। तुम्ही से कुछ, सत्ता में पदस्थ नेताओं के परिवार के रूप में, तो कुछ दलाल और कुछ महत्वाकांछा का लबादा ओढ़े सत्ता के गलियारों में घूमते है। कढ़ाई में पड़ी मलाई का चस्का सबसे पहले कढ़ाई ही तो लेगी... ये तुम्हारे पल्लू का कोना कोई और नही ले गया, तुम्हारा कोई जात बिरादर ही ले गया... और तुमने उसे ले जाने दिया। तुम्हारे स्वरूप के ये जो अटैचमेंट्स हैं वो तो मेरी भी ऐसी तैसी कर रहें हैं।"

फिर खंखार कर जम्हूरियत बोली "अम्मा, मेरे ख़ून का एक एक क़तरा तुम्हारी रगों से निकला है, पर जब तुम्हारे जिस्म का हिस्सा ही, तुम्हारे शेल्फ से जबरन बादाम रोगन की शीशी चुराकर स्वाहा कर जाए, तो क्या मेरे डी एन ए पर फ़र्क़ नही पड़ेगा। ध्यान रखो, जम्हूरियत के रूप में सिर्फ़ मेरा दिमाग़ चलता है पर शरीर तो तुम्हारा ही इस्तमाल होता है। तुम्हारे जो धड़, मलाई के चक्कर मे बुत परस्ती (यहाँ अर्थ चमचागिरी) में जुट जाते हैं या कौड़ियों की लालच में बहक जाते हैं, उन्हें जकड़ने की कोशिश करो। याद रखो माँ, तुम्हारा पंगा सत्ता के गलियारों में बैठे गिद्दों से नही, तुम्हारे अपनों से हैं जो तुम्हारा हिस्सा इन्हें सौंप रहे हैं और अपनी जेबें भरकर इन्ही की जमात में शामिल हों रहें हैं। जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं तुम्हारी ताक़त ज़रूर हूँ पर उतना ही जितना तुम मुझे शक्ति देती हो। जरा सोंचो, कुछ मुट्ठी भर लोग, इतनी विशाल आवाम से ताक़तवर कैसे हो जाते हैं या तुम कमज़ोर कैसे हो जाती हो। सही समझो तो, सत्ता से तुम्हारा संबंध मेरे माध्यम से है और मैं इसे अच्छी तरह समझती हूँ। किसी को तुमसे तीन पाँच करने नही दूँगी। पर अपने को समेटने का काम तो तुम्हारा ही है। अपने में जयचंदों को पहचानो और उनको दुरस्त करो।"
आवाम, जम्हूरियत की काउंसलिंग से प्रभावित लग रही थी... उसके चेहरे पर कुछ निखार सा दिख रहा था।

मोटिवेट होते हुए जम्हूरियत ने अपना प्रवचन जारी रखा, "याद रखो मैं (जम्हूरियत) तुम्हारी दम पर ज़िंदा हूँ और माँ तुम (आवाम) मेरे स्ट्रेटजी पर। याद रखना, तुम तो कमज़ोर होकर भी जीती रहोगी पर मैं... तुम्हारे कमज़ोरी की हर डगर के साथ सिमटती जाऊँगी और फिर जम्हूरियत के नाम पर बस फिर मेरा बुत ही रहेगा...।"

ऐसा कहकर, जम्हूरियत शांत हो गई। ठठेरे की तरह की गई उसकी ठोंक ठाक ने आवाम को चुस्त दुरस्त किया। उसने निर्णय लिया कि वह अपने को समय से वार्म अप करेगी, सीमा में रहकर भी वह अपने घटकों एवं अवयवों पर नज़र रखेगी... क्यों कि उसको अपनी बेटी जम्हूरियत का ख़्याल जो रखना है। चुनाव नज़दीक हैं... यही अवसर है, अपनी परिष्कृत पृष्ठभूमि के प्रदर्शन की।

दूर लाउडस्पीकर से, आवाज़ आ रही थी,
"इंसाफ़ की डगर पे बच्चों दिखाओ चलकर,
यह देश है तुम्हारा..."

मित्रों, अवाम के रूप में हमे सिर्फ़ अपनी शक्ति को पहचानना है, दारुन व्यथा का वर्णन करते जीवित नही रहना। हमे विश्वास होना चाहिए कि हमारी पीड़ा का इलाज हमारे पास है ना कि किसी मेडिकल स्टोर में। देश हमारा है, व्यवस्था हमारी है।

रामासुंदरम - आगरा (उत्तर प्रदेश)

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