बरसात और बादल - कविता - आराधना प्रियदर्शनी

निरंतर बादल नील गगन में,
आज़ाद घूमता शोर मचाता। 
कभी रुके तो कभी चले,
यह अलग अलग है रंग दिखाता।।

सुबह तो लगता बिल्कुल नीला,
दिन में लगता श्वेत स्वक्ष। 
शाम को लगता है यह गुलाबी,
जल दर्पण में यह प्रत्यक्ष।।

यह मनमौजी हवा का झोंका,
आश्रय हिन यह बंजारा।
यह वर्षा का संकेत है देता,
होता है बादल आवारा।।

घने बादल वर्षा ऋतु में,
शोर मचाए गरज गरज कर।
फिर सब को तृप्त व प्रसन्नचित्त कर, 
कृषि मन भाए बरस बरस कर।।

नीला व श्वेत रंग इसका,
दर्शाता सच्चाई है।
बूँदों के रूप में भू पर,
बरसाता अच्छाई है।। 

इसके रंग में डूब के देखो,
अलभ्य एक गहराई है।
कोई छू न सके उसके दामन को,
इतनी इसकी ऊँचाई है।।

काली घनघोर घटाएँ जब, 
छा जाए अनंत आकाश में।
मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू दर्शाए,
है जो तारुण्य छुपी बरसात में।।

सूरज की चमक पर घूँघट बनकर,
जब शर्माती काली मेघा छा जाए।
तब बिजली की तलवार करे समर्पण
और बूँदों के बाण चलाए।।

जब बचपन की शरारते और यौवन का जोश,
बातें करें किसी अक्षत ख़्वाहिश की।
उसी तरह हरी हरी पत्तियों पर बिखरी बूँदे,
अठखेलियाँ दिखलाए बारिश की।।

आराधना प्रियदर्शनी - बेंगलुरु (कर्नाटक)

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