मासिक धर्म और समाज का नज़रिया - कविता - राजेश "बनारसी बाबू"

ये ऊपरी अँधेरी कोठरी से 
कैसी कहरने की आवाज़ आई है?
ये कैसी चिल्लाहट और रोने की चीख़ दे रही सुनाई है?
लगता है आज अपनी छोटी बिटिया को मासिक धर्म आया है?
मेरी बिटिया तुमने कितना दर्द पाया है?
नहीं मांँ बस थोड़ा सा दर्द हो रहा है।
ऐसी क्या बात है जो तुझे शर्म आती है?
नहीं मांँ अब बस समाज की सोच पे हमें रोना आ जाता है।
जैसे लगता मासिक धर्म होना 
पिछले जन्म का बुरा कर्म होना नज़र आ जाता है।
नहीं मेरी प्यारी मुन्नी, हमें तो लोगों की मानसिकता पे 
गुस्सा ही आ जाता है।
जिस ख़ून को वो गंदा कहते हैं 
उसी ख़ून के इकट्ठा होने पे वे मर्द बनते हैं।
माँ ये पांँच दिन क्यों किसी अभिशाप से लगते हैं?
कभी लोग अचार मत छुओ तो 
कभी लोग मंदिर ना जाओ 
ना जाने क्यों हमें पापी सा समझते हैं?
हम भी किसी कोने में रोते ही रहते हैं।
ये मुश्किल दिन हम किसी से ना कहते हैं।
नहीं बेटा ये तो प्रकृति की देन है
इसका कोई छुआ छूत से नहीं लेन देन है।
बेटा मासिक धर्म आए तो शर्म मत करना, 
मासिक धर्म के दौरान स्वच्छ सेनेटरी पैड प्रयोग करना।
मांँ हमें ही क्यों हर महीने मरना होता है?
मरते हम हर महीने फिर भी हमें प्रतिनिधित्व भी हर जगह करना होता है।
हम देवी मानी जाती हैं फिर एक देवी को मंदिर में जाने से तिरस्कृत होना पड़ता है,
मन के पावन माने जाते फिर भी हमें हरदम स्वच्छ होना पड़ता है।
मांँ यह मासिक धर्म अभिशाप लगता है।

राजेश "बनारसी बाबू" - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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