सांध्य-तारा - कविता - सुरेंद्र प्रजापति

सांध्य-तारा,
वृन्द-उचारा,
नील व्योम का अगणित सितारा,
कोलाहल जग का एक सहारा,
दिवस निज घर जाइए।

आ रहा है,
छा रहा है,
कठिन श्रम को सुला रहा है,
समय सुहाना बुला रहा है,
अंतर तल को सुनाइए।

वह विधु लेखा
कल्पित रेखा,
प्रेम सुधा का घाट अनोखा,
वन उपवन को ऊँघते देखा,
मन में साध बसाईए।

मेरा मन
हो अनमन,
नीड़ को लौटते पंछी गण,
फिर उनका कोलाहल रन
रातों-रात बिताइए।

गोधूलि बेला,
जग का मेला,
गाँव लौटते बछड़ों का रेला,
पथ रेनू, बादलों का डेरा,
उड़ता बात बताइए।

घर व घर से,
हर छप्पर से,
उठता धुआँ लगे कुहरा से,
लौटते नर-नारी खेतन से,
रागिनी राग बनाइए।

सुरेंद्र प्रजापति - बलिया, गया (बिहार)

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