माँ-बाप - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

बूढे माँ-बाप को देखकर,
क्यों मुख मोड़ लिया करते हो।
माँ-बाप की भी
कुछ इच्छाएँ है, तुमसे कुछ कहते
पर तुम क्यों मुँह सिला करते हो।
माँ-बाप की समझाइश पर
क्यों झुँझलाते हो,
वह तो हर पल तुम्हारा
भला चाहने वाले हैं,
पर क्यों इतना इतराते हो।
कितनी मन्नतें माँगी होगी
तब कहीं तुमको पाया,
अपना हिस्सा बचा बचा कर
तुम्हें खिलाया।
तुमको बुखार भी
आया तो रात रात भर
नींद नहीं आती थी,
इधर उधर भाग कर
थपकी दे दे
तुम्हें सुलाती थी।
माता-पिता हर हाल में
तुम्हें ख़ुशी देकर
देवी देवताओं से 
दुआ करते हैं।
तुम माँ-बाप को
देखकर क्यों मुख 
मोड़ लिया करते हो।
माँ अगर बिछौना है
तो बाप ओढना है,
माँ अगर धरती है
तो पिता आसमाँ है,
बेटा तुम्हें क्या पता,
तुमसे आसाएँ हैं कितनी,
यही तो सबसे
बड़ी गलती करते है।
मन तो नहीं 
मानता आख़िर
माँ-बाप जो है,
तुम्हारी ख़्वाहिश
पूरी की,
और अपनी
तमन्नाओं पे फेरा पानी,
तुमने जब जब जो भी माँगा
दिया हर हाल में,
कभी न की आनकानी।
माँ-बाप
कब कहते हैं,
की अपनी पत्नी
बच्चों को
प्यार मत करो,
खूब प्यार करो
जैसे हमने तुमसे
असीम प्यार किया है।
बच्चों की आड़ लेकर
माँ-बाप की उपेक्षा कर,
न जाने कितने बहाने
किया करते हो।
जब विश्राम करने,
बैठकर खाने का
समय आया
तब माँ-बाप से
तुम प्रतिस्पर्धा किया करते हो,
बूढे माँ-बाप को देखकर
तुम क्यों मुँह मोड़
लिया करते हो।

रमेश चंद्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

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