स्मृति के झरोखे से - लघुकथा - रिंकी कमल रघुवंशी "सुरभि"

शादी के बारह वर्ष बाद पति और बच्चों के साथ पहली बार होली मनाने मामा के घर आई रमा की नज़र एक खिड़की पर जा टिकी और अतीत की खुशनुमा स्मृति में खो गई। जब आठवीं कक्षा में पढ़ती थी, और विवेक भी होली की छुट्टी में अपने गाँव आया था।

घर के पीछे हुरियारों की टोली में रंगो से लाल पीला हुआ विवेक रमा को इतना भाया की बस देखती रही, विवेक की नज़र भी खिड़की से हट नही रही थी, फिर हुरियारों की टोली आगे बढ़ी और कुछ बच्चे विवेक को खींचते ले गए। रमा हड़बड़ाकर छत की ओर भागी हुड़दंग देखने। घर में खिड़की दरवाजे और बिजली तक बंद थी, रमा अँधेरे में ही भागी और सीढ़ियों पर रखे गिलास पर पैर पड़ने से लुढ़कते हुए नीचे आ गई। मगर जाने कैसा उत्साह था विवेक को देखते रहने का कि उठकर फिर भाग गई छत की तरफ़ और जब तक होली की हुड़दंड होती रही वह धूप में छत पर खड़ी देखती रही, जब होली खत्म हो गई, हुरियारे अपने अपने घर चले गए तब रमा का ध्यान अपनी चोट पर आया, पाँव छिला हुआ था, हाथ की टहनी से भी हल्का सा खून आ रहा था, तभी ध्यान गया कोई लगातार दरवाजा ठोक रहा है। रमा फिर भागकर नीचे गई, दरवाजा खोला।

आज इतने वर्षों बाद उसी खिड़की से हुरयारों की आवाज़ सुन रमा अतीत की खुशनुमा स्मृतियाँ विवेक को सुनाने दौड़ पड़ी। विवेक आज रमा का पति है, बचपन की होली याद कर दोनों खिलखिला कर हँस पड़े।

रिंकी कमल रघुवंशी "सुरभि" - विदिशा (मध्यप्रदेश)

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