प्रकृति पुरुष शिवजी - कविता - विनय "विनम्र"

शिव जन्म नहीं, शिव मृत्यु नहीं,
वे अविरल हैं व्यक्तित्व नहीं।
वे कालख़ड़ में बंधे नहीं,
शब्दों में भी कभी सधे नहीं।
वे राग द्वेश से उपर हैं,
सृष्टि अशेष से उपर हैं।
वे रमते हैं सर्वत्र मगर,
पर पता नहीं है कौन डगर।
सबको अमृत की चाह यहाँ
शिव को विष से है आह कहाँ।
कभी अमरनाथ कभी श्मशान,
कभी विश्वनाथ कभी वियावान।
क्यों ढूँढ रहे उस निराकार को,
जो रहता सबमें ओंमकार हो।
नाम रुप के बंधन में
मत बाधों त्रिकाल के स्वर को,
ढूढों पाँच तत्व में गूंजित,
अनंत गूढ नाद हर हर को।।

विनय "विनम्र" - चन्दौली (उत्तर प्रदेश)

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