प्रकृति का संदेश - कविता - स्मृति चौधरी

यह काली-घनी, घनघोर, स्याह रात,
इस रात की अब कोई सुबह ना हो...
जैसे साफ़-साफ़ बहुत कुछ दिखाना चाहता हो- अँधेरा,
जैसे चीख चीख कर बहुत कुछ कहना चाहता हो- सन्नाटा,
जैसे गलत और सही की कसौटी पर आज कसता हो- अतीत,
जैसे अंतर्द्वंद हो जीतने और ख़ुद से ही हारने का- भविष्य/भोर,
जैसे बन गई हो काली स्याह रात- नियती।

किसी को हक़ नहीं है,
प्रकृति हो या ज़िंदगी इसमें दख़ल का...
अब जो मेरा है, वह पूरा मेरा है,
चाहे अँधेरा ही क्यों ना हो...
लगता है शायद,
इस रात की अब कोई सुबह ना हो,
लेकिन...
महासमर में ये चीत्कार कैसी- ये कौन हारा?
अँधियारे से धवल चाँदनी
विस्फोटक होने को आतुर है,
जैसे मानो,
मानो निगल जाना चाहती है, 
अँधेरे को,
ओर बिखरने को व्याकुल है,
धरा के असीम, अंतिम कोनों तक,
मानो परिसीमन के बंधनों को तोड़,
छा जाना चाहती है धुएँ की तरह,
भर देना चाहती है उन रिक्त स्थानों को,
जिनका वजूद अँधेरा है,
और अँधेरा भी तो,
पौ की किरणों की आहट पाकर,
ओर गहरा हो जाता है।
जैसे ही अंत होता है प्राकृतिक द्वन्द का,
महक उठती है धरा, 
भौर की पहली किरणों से,
भौर से पहले अँधेरे को छाना ही होता है,
हो भी क्यों ना,
पतन से पहले की पराकाष्ठा होती ही ऐसी है।
है ना,
दोनों ही प्राकृतिक कालचक्र की कलाएँ हैं।।
कभी कठोर तिमिर, 
कभी सुनहरा प्रकाश।
जैसे सुख-दुःख पूरक हैं एकदूसरे के,
ऐसे ही उजियारा और चाँदनी भी।।

स्मृति चौधरी - सहारनपुर (उत्तर प्रदेश)

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