त्योहार नहीं, पहचान नहीं,
घर के सीता का मान नहीं।
वह सीता थी सती सदा,
आज नज़रें सीता को घूर रहीं।।
असत्य के साथ था भले खड़ा
पर मर्यादा पर कायम था
सीता को आश्रम में रखा भले
पर नारी सम्मान पर क़ायम था।।
तू जला रहा जिस रावण को,
उसने विद्वता की मिसाल रखी।
पाल रहा जिस रावण को,
उसकी नज़रें सीता पर टिकी।।
हर घर मे पलता है रावण
घर-घर मे पैदा सीता है
कास जलाये उस रावण को
जो सीता को डंसता है।।
आज की सीता बिलख रही,
शोषण और अत्याचार बढा।
घूर रहा जिस सीता को,
उससे मर्यादा का नाम जुड़ा।।
ज़हीर अली सिद्दीक़ी - सिद्धार्थनगर (उत्तर प्रदेश)