शिकार - कविता - दीपक राही

मुझे बहुत समझाया गया,
अगर अंधेरा हो तो,
घर से अकेले मत निकलना,
कभी कोई कुछ भी कहे,
तो चुप्पी साध कर आगे बढ़ना,
इन सब के बावजूद भी मै,
उनका शिकार हो ही जाती हूं,
बेटी, बेटा एक समान तो
कहा जाता है पर,
होते नहीं कभी,
मेरे जन्म होने से ही, 
अपबाद खड़े हो जाते हैं,
बोझ सी लगती हूं,
इस समाज की रूढ़िवादी सोच को,
कितनी दरिंदगी है, 
इस समाज में मेरे प्रति,
मेरी जीवा तक को काट दिया,
मेरे जिस्म और मेरे कपड़ों को,
इस तरह उधेड़ा गया कि जैसे,
कोई गिद्ध मृत पड़े हुए,
जानवर को बेरहमी से,
उधेड़ रही हो जैसे,
पर फिर भी इल्जाम,
मुझे पर जड़ दिए जाते हैं,
आखिर जिस्म तो था मेरा ही,
जो भेंट चढ़ा इन शिकारियों के,
मेरे जाने के बाद,
आंदोलन होंगे, मार्च निकलेंगे,
राजनीतिक रोटियां सेकी जाएंगी,
कोर्ट कचहरी में केस चलेगा,
पर न्याय मिलते मिलते,
घरवालों के जूते घिस जाएंगे,
लोग अपने घरों को जाएंगे,
राजनेता वोट इकट्ठा करेंगे,
पत्रकार कुछ दिन खबर चलाएंगे,
साहब लोग आदेश का पालन करेंगे,
पर मैं एक बार फिर,
न्याय की चक्की में 
सालों साल पिस्ती जाऊंगी।

दीपक राही - जम्मू कश्मीर

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