फेंक दिया बेकार समझ
एक टुकड़ा वो रोटी का
कोई तरसता है उसको
कूड़े से उठा कर खाने को,
माना की अमीरी का आलम
सर पर चढ़ कर है खेल रहा
जरा बाहर देखो शीशमहल
बेघर तरसे आने-आने को ।
कोई तन पर हवा की चादर में
कड़ी ठंढ़ में ठिठुर रहा
कोई वियर विस्की रम में
धन जला रहा मैखाने में,
नये की हसरत न है उनको
वो खुश हैं तुम्हारे छूटे पुराने में
दिल खोलकर परहित कर देखो
कितनी खुशी जमाने में ।
गरीबी और अमीरी तो
बस वक्त के पहिए है राही
फिर कैसे कोई छोटा बड़ा
खुशी मिल बांट कर संग खाने में,
परहित परम धर्म है बंधु
सूर्य सत्य यह सर्वविदित
खुशियाँ फैलेंगी सारी जमी पर
चांदनी आसमानी शामियाने में ।
परहित परम धर्म है बंधु
असली खुशी इस जमाने में ।।
सूर्य मणि दूबे "सूर्य" - गोण्डा (उत्तर प्रदेश)