त्रासद कोरोना कहीं , इतर निसर्गी शोर।।१।।
कारण हम इस विपद के, प्रकृति मातु है कुप्त।
लालच बढ़ती इस कदर , नैतिकता है सुप्त।।२।।
धर्म मर्म सब ताख पर, निर्ममता जग शेष।
गज़ब प्रगति की कल्पना, बचे कौन अवशेष।।३।।
मानवीय नैतिक पतन ,भौतिक चाह महान।
तहस नहस करता प्रकृति , कैसे खिले विहान।।४।।
नव प्रभात की अरुणिमा , कैसे हो वरदान।
सोच विनाशक मानवी , बनी आज शैतान।।५।।
निर्भरता जीवन मरण , पंचतत्त्व आधार।
मदमाता निष्ठुर मनुज , तुला प्रकृति संहार।।६।।
रोती है कवि कामिनी , देख प्रकृति अपमान।
रवि शशि की पावन किरण ,कैसे दे सुख मान।।७।।
कवि निकुंज विनती मनुज,यदि चाहत अरुणाभ।
चलो बचाएँ प्रकृति को , निर्मल भू नीलाभ।।८।।
डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" - नई दिल्ली