चलो बचाएँ प्रकृति को - दोहा - डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

मातम   है    छाया  हुआ , कैसी  है   यह   भोर। 
त्रासद    कोरोना    कहीं , इतर   निसर्गी    शोर।।१।।

कारण हम इस विपद के, प्रकृति मातु  है  कुप्त। 
लालच  बढ़ती  इस  कदर , नैतिकता  है   सुप्त।।२।।

धर्म  मर्म  सब   ताख  पर, निर्ममता  जग   शेष।
गज़ब प्रगति की कल्पना, बचे   कौन   अवशेष।।३।।

मानवीय   नैतिक   पतन ,भौतिक  चाह  महान।
तहस नहस करता प्रकृति , कैसे  खिले  विहान।।४।।

नव प्रभात  की  अरुणिमा , कैसे   हो    वरदान।
सोच     विनाशक  मानवी , बनी   आज  शैतान।।५।।

निर्भरता    जीवन      मरण , पंचतत्त्व    आधार।
मदमाता   निष्ठुर   मनुज , तुला  प्रकृति    संहार।।६।।

रोती  है   कवि कामिनी , देख  प्रकृति  अपमान।
रवि शशि  की पावन  किरण ,कैसे दे सुख  मान।।७।।

कवि निकुंज विनती मनुज,यदि चाहत अरुणाभ।
चलो   बचाएँ   प्रकृति  को , निर्मल  भू  नीलाभ।।८।।

डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" - नई दिल्ली

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