संदेश
नारी - दोहा छंद - भाऊराव महंत
रोक सको तो रोक लो, नारी की रफ़्तार। अब पहले जैसी नहीं, वह अबला लाचार॥ जब नारी चुपचाप थी, दिखता था संस्कार। बदतमीज़ लगने लगी, बोली जिस दि…
प्रश्न नहीं, परिभाषा बदलनी होगी - कविता - अपराजितापरम
चाहती हूँ, उकेरना, औरत के समग्र रूप को, इस असीमित आकाश में...! जिसके विशाल हृदय में जज़्बातों का अथाह सागर, जैसे- संपूर्ण सृष्टि की भाव…
औरतें जिन्हें इतिहास जगह देगा - कविता - डॉ॰ चित्रलेखा अंशु
औरतें पढ़ रही हैं स्टेटिस्टिक गढ़ रही हैं मैथ्स के फार्मूले छूट रहा है उनसे रसोई उनके भी दो ही हाथ हैं दोनों हाथ लिखने में व्यस्त होंग…
समता की अधिकारी 'नारी' - कविता - आशीष कुमार
लड़ रही लड़ाई अपनी गर्भ से ही अस्तित्व की पहचान की घर से लेकर बाहर तक हर एक मुद्दे पर ख़ुद को स्थापित की है अपनी मेहनत से लगन से मेधा स…
मान करो या अपमान करो - कविता - गणेश भारद्वाज
मैं नर की पूरक नारी हूँ नर से मेरी होड़ नहीं है, भाव सरल सब सीधे मेरे पथ में कोई मोड़ नहीं है। मैं मालिन बाग बगीचों की सबका मन बहलाने…
मैं औरत हूँ - कविता - दीक्षा
मैं कोमल हूँ, कमज़ोर नहीं मैं गर्व हूँ, मग़रूर नहीं मैं औरत हूँ कोई डोर नहीं बाँधके न रखो मुझे, तोड़ सब ज़ंजीरे जाऊँगी अँधेरे का सामना तो …
सुनो न - कविता - राशि गुप्ता
सुनो न... मेरे भी हैं कुछ ख़्वाब, बंद पिंजरे में मैं तकती आसमान को हूँ, पूरे करने को वे मेरे अरमान... सुनो न... सुनो न... मत बाँधों न…