समता की अधिकारी 'नारी' - कविता - आशीष कुमार

लड़ रही लड़ाई अपनी
गर्भ से ही
अस्तित्व की पहचान की
घर से लेकर बाहर तक
हर एक मुद्दे पर
ख़ुद को स्थापित की है
अपनी मेहनत से लगन से मेधा से
खरी उतरी है हर एक औरत
हर एक पहलू-मोर्चे पर।

जन्म से लेकर जन्मदिवस तक
ख़ुशियाँ फीकी हर मौक़े पर
दोयम दर्जा मिलता है इनको
अपने परिवार समाज से
प्रताड़ना झेल कर भी मान बढ़ाती
माँ-पिता कुल का
ढल जाती हर ढाँचे पर।

मान मर्यादा इनके हिस्से
बेलगाम है बेटों पर ख़र्चे पर
ममता की मूर्ति बाट जोहती
ममता के अपने हिस्से पर।

अव्वल हैं हर क्षेत्र में
खड़ी हैं अपने पैरों पर
माँ बहन पत्नी बेटी
कोई रूप हो या कोई भूमिका
भारी है नारी हर रिश्ते पर।

मानसिकता बदले समाज अपनी
जीता है आधुनिकता में
पर सोचता पुराने ढर्रे पर
समता की अधिकारी हैं वह
ढलने दे उन्हें अब अपने साँचे पर।

आशीष कुमार - रोहतास (बिहार)

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