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छवि (भाग १५) - कविता - डॉ॰ ममता बनर्जी 'मंजरी'
(१५) हठवादिता-मोह-मद कारण, मानव के अपकर्ष का। मानव स्वयंमेव पथ चुनता है, विषाद या तो हर्ष का।। मंजिल एक सभी धर्मों की, अलग-अलग हर राह …
छवि (भाग १४) - कविता - डॉ॰ ममता बनर्जी 'मंजरी'
(१४) 'धर्म' शब्द का सही अर्थ से, जन-मानव अनजान हैं। बहुसंख्यक हैं अज्ञानीजन, लघुसंख्यक को ज्ञान है।। धर्म किसे कहते हैं जानो, …
छवि (भाग १३) - कविता - डॉ॰ ममता बनर्जी 'मंजरी'
(१३) वर्ष हज़ारों बीत गए अब, आया नूतन काल है। रहन-सहन मानव का बदला, बदल गई अब चाल है।। विविध धर्म और जातियों में, जीवात्मा गण बँट गए। ज…
छवि (भाग १२) - कविता - डॉ॰ ममता बनर्जी 'मंजरी'
(१२) हे पार्थ प्रतिम! तुम देख रहे जो, वही सत्य है जान लो। आश्चर्यचकित मत हो प्यारे, तत्व-ज्ञान संज्ञान लो।। परम् धाम मैं अखिल विश्व का…
छवि (भाग ११) - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"
(११) दिव्य-चक्षु पाते ही अर्जुन, बरबस जड़वत हो गए। सीमा पार किए ज्ञानी की, दैव-जगत में खो गए।। परम रूपमैश्वर भगवन थे, सम्मुख पार्थ के ख…
छवि (भाग १०) - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"
(१०) छवि देखता रहता मानव, मायावी संसार की। चर्म-चक्षु दिखलाता रहता, चीज़ें विविध प्रकार की।। ज्ञान-चक्षु यदि खोले मानव, दिख जाता कुछ और…
छवि (भाग ९) - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"
(९) कर्मभूमि है धरती सारी, कर्ता मनुज महान है। प्रत्येक मनुज के उर तल में, शक्ति और शुचि ज्ञान है।। कर्त्यव्यों के निर्वाह हेतु, शैली …