छवि (भाग १५) - कविता - डॉ॰ ममता बनर्जी 'मंजरी'

(१५)
हठवादिता-मोह-मद कारण, मानव के अपकर्ष का।
मानव स्वयंमेव पथ चुनता है, विषाद या तो हर्ष का।।
मंजिल एक सभी धर्मों की, अलग-अलग हर राह हैं।
अलग-अलग हैं नाव सभी के, अलग-अलग मल्लाह हैं।

अगर सवारी करें आप ही, नाव बीच ज्यों छेद है।
नाव डूब जाती पानी में, इसी बात की खेद है।।
कर्म अधर्मी का होता है, उसी सवारी की तरह।
डूबे स्वयं डुबोए सबको, कौन करे किससे जिरह?

सोच अधर्मी की होती है, धर्मी से बिल्कुल जुदा।
वही भेद करते हैं बरबस, राम बड़ा है या ख़ुदा।।
बुद्ध-यीशु-महावीर-नानक, नहीं किसी को मानते।
मेंढक कूप सरीखा होते, सिंधु नहीं पहचानते।।

पहचान तभी हो सकती है जब, उर तल में उजियार हो।
मानव मात्र हेतु उर तल में, सद्भाव और प्यार हो।।
अरे मूर्ख! यह जग है न्यारा, विभिन्नता से है भरा।
छवि बड़ी निराली है इसकी, खोलो आँखों को ज़रा।।

डॉ॰ ममता बनर्जी 'मंजरी' - गिरिडीह (झारखण्ड)

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