छवि (भाग १२) - कविता - डॉ॰ ममता बनर्जी 'मंजरी'

(१२)
हे पार्थ प्रतिम! तुम देख रहे जो, वही सत्य है जान लो।
आश्चर्यचकित मत हो प्यारे, तत्व-ज्ञान संज्ञान लो।।
परम् धाम मैं अखिल विश्व का, स्थिति आधार निधान हूँ।
सबका स्वामी शरण्य हूँ मैं, लीलाधर भगवान हूँ।।

अनन्य भक्ति मात्र साधन है, मेरे साक्षात्कार का।
कर्म करे परमात्मोन्मुख जो, अधिकारी मम प्यार का।।
कामना कर्म फल की त्यागे, जो मानव संसार में।
कभी न अटके उसकी नैया, भवसागर मझधार में।।

इस धरती पर रहने वाले, मानव एक समान हैं।
कर्म और स्वभाव से सबकी, इस जग में पहचान है।।
परमात्मा के अंश सभी हैं, कर्म सभी के भिन्न हैं।
भिन्न-भिन्न विचार हैं सबके, चिंतन-मनन विभिन्न हैं।।

निष्काम कर्म में रत रहना ही, पूजा-पाठ समान है।
कर्म करो फल की मत सोचो, यह गीता का ज्ञान है।।
चलो पार्थ! निज कर्म करो अब, यही तुम्हारा धर्म है।
जबतक साँसे चले तुम्हारी, करते रहना कर्म है।।

डॉ॰ ममता बनर्जी 'मंजरी' - गिरिडीह (झारखण्ड)

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