छवि (भाग ११) - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"

(११)
दिव्य-चक्षु पाते ही अर्जुन, बरबस जड़वत हो गए।
सीमा पार किए ज्ञानी की, दैव-जगत में खो गए।।
परम रूपमैश्वर भगवन थे, सम्मुख पार्थ के खड़े।
नाना मुख चक्षुयुक्त नाना, दिव्याभूषण से जड़े।।

नाना अद्भुत दर्शन वाले, नाना आयुध से सजे।
नाना दिव्य वस्त्र-माला से, नख से शिख तक थे सजे।।
दिव्य सुगंध युक्त लेपन तन, आश्चर्यजनक रूप था।
शुभमय सुंदर अरु प्रकाशमय, सर्वसमर्थ स्वरूप था।।

सकल चराचर विश्व तुम्हीं में, तुझमें ही ब्रह्मांड हैं।
जन्म-मरण सृष्टि-प्रलय तुझमें, तेरा रूप प्रकांड है।
अनेकबाहु तुम्हीं हो माधव, अग्निरूप भी हो तुम्हीं।
प्रेमिल हो तुम कठोर भी हो, सुखद-दुखद भी हो तुम्हीं।।

हे देव! विश्वव्यापी तुम हो, विश्वेश्वर भी हो तुम्हीं।
तुम्हीं मुकुटयुक्त गदायुक्त हो, चक्रयुक्त भी हो तुम्हीं।।
परमब्रह्न परमेश्वर प्रेमिल, हो पुरुष सनातन तुम्हीं।
तुम ही अक्षर अविनाशी हो, अनादिमध्यान्तम तुम्हीं।।

डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)

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