छवि (भाग १३) - कविता - डॉ॰ ममता बनर्जी 'मंजरी'

(१३)
वर्ष हज़ारों बीत गए अब, आया नूतन काल है।
रहन-सहन मानव का बदला, बदल गई अब चाल है।।
विविध धर्म और जातियों में, जीवात्मा गण बँट गए।
जिस पथ पर चलना था सबको, उस पथ से यूँ हट गए।।

चल पड़े नए पथ पर मानव, लिए पताका हाथ में।
जाति-धर्म मज़हब की गठरी, लेकर अपने माथ में।।
ढम-ढम-ढम-ढम ढोल पीटकर, गीत धर्म का गा रहे।
मगर किसी को पता नहीं है, किस दिशि में जा रहे।।

पथ पर नाना मंदिर-मस्ज़िद, गुरुद्वारे अरु चर्च हैं।
इन्हें बनाने बनवाने में, अतिशय आर्थिक ख़र्च हैं।।
ख़र्च वहन करने को मानव, हरपल तत्पर है खड़ा।
मानवता जर्जर हालत में, एक ओर बेसुध पड़ा।।

लेकिन इसके बीच एक पथ, जगमग-जगमग कर रहा।
मानवता खिल-खिल हँसता सा, डग हरेक पल भर रहा।।
सत्य-न्याय के संग अहिंसा, इस पथ पे आबाद हैं।
साधु-संत सदाचारियों का, इस पथ पर तादाद हैं।।

डॉ॰ ममता बनर्जी 'मंजरी' - गिरिडीह (झारखण्ड)

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