जाति, जाती नहीं - कविता - शिवानी कार्की

जाति, जाती नहीं - कविता - शिवानी कार्की | Hindi Kavita - Jaati Jaatee Naheen | जाति पर कविता, Hindi Poem On Cast
माँ,
आपने मुझे बचपन से सिखाया था...
कि पानी देवता हैं
सबका साँझा है
और तुम तो शुक्र करो
कि तुम इंसान हो...
इतना बड़ा लोकतंत्र है
और नागरिक-ए-हिंदुस्तान हो।
पर माँ,
उन्होंने तो मुझे बहुत मारा
नहीं शुक्र मनाने पर नहीं...
पानी पीने पर...
हाँ माँ! पानी ही तो पिया था मैंने...
शायद मटके से,
हाँ, अपने से ऊँची जाति वाले शिक्षक के मटके से,
लेकिन मुझे क्या पता था माँ?
कि
कि वो मुझे मार देंगे...
और फिर मेरी अस्मिता की मिसाल देंगे
कि फिर न पीना पानी उनके मटके से...
माँ! मैंने तुम्हे छोड़ा,
प्यारा राजस्थान छोड़ा...
और जान से प्यारा
हिंदुस्तान छोड़ा...
हाँ माँ, शायद पानी बहुत क़ीमती है।
है ना… या जाति?

अच्छा आपने बचपन में एक कहानी सुनाई थी...
बचपन में?
अरे! मैं तो बचपन में ही मारा गया।
खैर छोड़ो... सुनाई थी ये सुनो
हाँ तो माँ आपने सुनाई थी कि–
एक कौआ प्यासा था,
कंकड़ डाले मटके में...
ठंडा पानी पीता था।
माँ! वो कौआ ऊँची जाति का था या नीची जाति का?
ज़रूर ऊँचे जाति वालो का होगा।
तभी तो जी भी पाया और पी भी पाया...
वरना मेरी तरह होता तो मारा जाता।

अच्छा माँ! एक बात बताना कि आख़िर–
क्यों ये बात सबको समझ आती नहीं?
कि जाति मात्र जाति ही तो है...
फिर भी क्यों समाज से जाती नहीं?

शिवानी कार्की - नई दिल्ली

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