खेल कराते मेल - कविता - अशोक शर्मा

व्यस्तता की गहरी खाई में,
भौतिकता की अँगड़ाई में,
जहाँ अपना कोई न समझे,
हो रहा जहाँ पर ठेलमठेल,
देखो तब खेल कराते मेल।

मानव को मानव से जोड़े,
हाथ मिला विष नाता तोड़े,
दूरी मीटर या हो दिल की,
राह के रोड़े देते हैं ठेल,
देखो हैं खेल कराते मेल।

भावना भरी है भाईचारे की,
जय हो ऐसे खेल प्यारे की,
कटुता द्वेष सब भूल जाते,
जब हो मैदाँ में रेलमरेम,
देखो ना खेल कराते मेल।

जीवन की इस लघुता में,
भौतिकता की पंगुता में,
प्यार से सबको गले लगाएँ,
आओ मिलकर खेले खेल,
देखो हैं खेल कराते मेल।

अशोक शर्मा - लक्ष्मीगंज, कुशीनगर (उत्तर प्रदेश)

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