निगाहें देखती है
गाँव की ओर हाँ वहीं गाँव जहाँ प्रेम की नाव चलती है
जिस नाव के खेवनहार किसान, मज़दूर, गँवार हैं
जो अपने लाल को ढाल बनाने भेजते हैं गाँव के स्कूल।
गाँव का विद्यालय जीवन की पहली पाठशाला है
जो अब उत्पादशाला हो गई है
इंस्पेक्शन की, काग़ज़ पर थोपा हुआ परीक्षा की जो विचारों को परिक्षा में लिए जा रही हैं।
वहीं गाँव जहाँ सुनहरे ईमानदार विचार हैं जो साहित्य का आधार है - प्रेमचंद, नामवर, केदार, त्रिलोचन, धूमिल, गोलेंद्र
पुराने, नए, तुम और मैं सरीखे ज्ञान है जो मानवता का आधार है
आज मानवता की एक कुंडी फँस गई है जो लीलने के लिए आतुर है
शहर की चाकचौबंद की तरह
जहाँ विष ही विष घुली है मानव को दानव बनाने के लिए।
विनय विश्वा - कैमूर, भभुआ (बिहार)