उठे जो मन में तुम्हारी ख़ातिर,
सदा पवित्र थे भाव हमारे।
ना जाने कैसे सहा था हमने,
अक्खड़पन भरे ताव तुम्हारे।
जीवन पथ पर है कैसे चलना,
क़दम-क़दम पर था मैं बताता।
सम्हलना कैसे, कहाँ है बचना,
बात-बात पर था समझाता।
पर, हाय रे मन तेरा शंकालु,
कभी ना समझा मेरे इशारे।
उठे जो मन में तुम्हारी ख़ातिर,
सदा पवित्र थे भाव हमारे।
चली समय की कुछ ऐसी आँधी,
तोड़ दिए ख़ुद से अपना ही वादा।
हमारे हिस्से तुम कर सके बस,
सुख के बदले दुख ही ज़्यादा।
भँवरजाल में उलझा तेरा मन,
समझ ना पाया चाव हमारे।
उठे जो मन में तुम्हारी ख़ातिर,
सदा पवित्र थे भाव हमारे।
तन का अर्पण, मन का समर्पण,
सब कुछ तो था तेरी ख़ातिर।
निर्मल, निश्छल मन को मेरे,
ना पढ़ पाए तुम क्यूँ आख़िर?
मीठी बोली की मरहम से,
ना भर पाए घाव हमारे।
उठे जो मन में तुम्हारी ख़ातिर,
सदा पवित्र थे भाव हमारे।
जो सुनता बस अपनी ही बातें,
कुछ कैसे उससे कह पाता।
अंतर्मन की पीड़ा भी आख़िर,
कब तक बोलो मैं सह पाता।
विकल्प तुमने अच्छा चुना पर,
कैसे सहोगे अलगाव हमारे?
उठे जो मन में तुम्हारी ख़ातिर,
सदा पवित्र थे भाव हमारे।
प्रमोद कुमार - गढ़वा (झारखण्ड)