मैं हिंदी हूँ,
भाषा मैं सिखाती हूँ।
जन्म देकर संस्कृत ने मुझको,
अपनी छाँव में पाला है,
ताज बनाकर अपने मुकुट का,
हिंद ने मुझे संभाला है।
नाम दिया अभिमान दिया,
देश ने मुझको प्यार दिया,
इससे आगे परदेस में भी,
ग़ैरों ने मुझे सम्मान दिया।
माता की तरह अपनाती हूँ,
पिता की तरह सिखाती हूँ,
पथ से कोई भटक ना जाए,
जीवन का राह दिखाती हूँ।
अँधेरे में ज्ञान का दीप जलाती,
ज्ञान देकर अज्ञान भगाती,
जो कोई मुझको अपनाता है,
उसको मैं गुणवान बनाती।
सरल हूँ स्वभाव से धनी हूँ,
लोगों में प्यार बढ़ाती हूँ,
मिल जुलकर सब ख़ुशियाँ बाँटें,
भाईचारे का पाठ पढ़ाती हूँ।
ना कोई दोस्त ना कोई दुश्मन,
सभी मेरे लिए अपने हैं,
भाषाओं में श्रेष्ठ कहलाऊँ,
ऐसे मेरे कुछ सपने हैं।
मैं हिंदी हूँ,
भाषा मैं सिखाती हूँ।
सुनील गुप्ता - गायघाट, बक्सर (बिहार)