एक सपना था,
जो जाग रहा।
दूब पे बिखरी ओस का,
स्पर्श जो था पाँओं को।
विपन्नता से जीवनयापन का,
कुल ज्ञान था गाँवों को।
पेड़ों की एकांत स्तुति सा,
शेष राग रहा।
काग़ज़ पर उकेरे शब्दों से,
सांकेतिक भाष बनाया था।
दूरी की भोगी पीड़ा का,
ऑंखों से संवाद कराया था।
स्नेह के क्षण रूके पड़े,
काल तो देखो
भाग रहा।
जल के भीतर जो पनप रहा,
कहाँ ज्ञात किनारों को।
ज्वारभाटे की उथल-पुथल,
कहाँ छू पाएगी मीनारों को।
शोषित की सूनी ऑंखों सा,
विचार लाँघ रहा।
हेमन्त कुमार शर्मा - कोना, नानकपुर (हरियाणा)