जगत के कुचले हुए पथ पर भला कैसे चलूँ मैं? - कविता - हरिशंकर परसाई

जगत के कुचले हुए पथ पर भला कैसे चलूँ मैं? - हरिशंकर परसाई की कविता। Harishankar Parsai Poem - Jagat Ke Kuchale Huye Path Par Bhala Kaise Chaloon Main
किसी के निर्देश पर चलना नहीं स्वीकार मुझको,
नहीं है पद चिह्न का आधार भी दरकार मुझको।
ले निराला मार्ग उस पर सींच जल काँटे उगाता,
और उनको रौंदता हर कदम मैं आगे बढ़ाता।

शूल से है प्यार मुझको, फूल पर कैसे चलूँ मैं?

बाँध बाती में हृदय की आग चुप जलता रहे जो,
और तम से हारकर चुपचाप सिर धुनता रहे जो।
जगत को उस दीप का सीमित निबल जीवन सुहाता,
यह धधकता रूप मेरा विश्व में भय ही जगाता।

प्रलय की ज्वाला लिए हूँ, दीप बन कैसे जलूँ मैं?

जग दिखाता है मुझे रे राह मंदिर और मठ की,
एक प्रतिमा में जहाँ विश्वास की हर साँस अटकी।
चाहता हूँ भावना की भेंट मैं कर दूँ अभी तो,
सोच लूँ पाषान में भी प्राण जागेंगे कभी तो।

पर स्वयं भगवान हूँ, इस सत्य को कैसे छलूँ मैं?


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