प्रेम - कविता - मुकेश वैष्णव

प्रेम में आश्वाशन मरणासन सी स्तिथि है,
मेरी तरह न जाने कितनों की आपबीति है।
आँखें मूँद के हर बार हिमाक़त कर लेना,
समाज में बाल विवाह के जैसी कुरीति है। 

अरमानों के सैकड़ो सिपाही ख़ुद गवाएँ हमने,
तब कहीं जाकर मोहब्बत की जंग जीती है।
अपनों को खोकर एक किसी को पा लेना,
ये ऐसा तप है इसमें जाने कितनी आहुति है। 

अहसास का कवि रंज के दलदल में धँस गया,
क़लम भी जोंक बनके उसी का लहू पीती है।
कितना कठिन है निश्छल प्रेम को हर लेना,
प्रेम ने जने वियोग शोक विरह ये कैसी प्रसुति है। 

अंतिम श्वाश लेता प्रेम-दीप तमस में लुप्त हुवा,
सुबह प्रेम छल की हल्दी होनी शाम रस्म अंगूठी है।
तुम भी इस प्रेम पश्चयाताप का गीत गा लेना,
संयोगवश आज उसी अनंत प्रेम की पुण्यतिथि है।

मुकेश वैष्णव - देवास (मध्यप्रदेश)

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