दो तारीख़ों के बीच
बीतते हैं जो युग
उनका फ़ासला भी
दीवार पर टँगा कैलेण्डर
दिनों में बताता है
फिसल जाती हैं जो तारीख़ें हाथों से
चिपकी रह जाती हैं वो भी
कैलेण्डर पर
जन्म लेते हैं हम
जिन तारीख़ों में
स्वयं प्रसव पीड़ा से गुज़रकर
कैलेण्डर उन तारीख़ों के
सोहर गीत नहीं जानता
दीवार पर टँगा कैलेण्डर
फिर से
सूखा पेड़ बन जाता है
वसन्त का कैलेण्डर
मन की खूँटी पर टँगा है।
डॉ॰ नेत्रपाल मलिक - अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)