ख़्वाहिश - कविता - सैयद इंतज़ार अहमद

अब मुझे शोहरत की लालच भी नहीं,
है मुझे दौलत से निस्बत भी नहीं,
चाहता हूँ, जी लूँ अब यूँ ज़िंदगी,
बनके एक गुमनाम सा बस आदमी।

मैंने देखे लोग हैं बस मतलबी,
रिश्ते भी बन जाते अक्सर अजनबी,
भीड़ में खो जाते हैं वो लोग भी,
जिनके चर्चे ख़ूब होते थे कभी।

आया था मैं भी अकेले दुनिया में,
छोड़ने जाएँगे शायद चंद लोग,
बाद मेरे याद रक्खें या भुला दे,
फ़िक़्र इसकी मैं कभी करता नहीं।

बस यहीं सीखा है मुश्किल वक़्त में,
सब्र रखता है दिलों में जो कोई,
उलझनें मिल जाए उसको कितनी भी,
हार उसकी फिर कभी होती नहीं।


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