रिश्तों की डोर - कविता - विजय कुमार सिन्हा

जन्म से मृत्यु तक,
इंसान बँधा है रिश्तों की डोर में।
रिश्तों की डोर बहुआयामी होती है।
मात-पिता, भाई-बहन, दादा दादी 
इन रिश्तों को ख़ून को रिश्ता कहते हैं।
प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी,
गुरु शिष्य या फिर हो दोस्ती का,
दुश्मनी का या पड़ोसी का,
पैसों का हो या मतलब का,
इन सब रिश्तों को निभाना ही पड़ता है।
त्याग, समर्पण और सब्र से परिपक्व बनते हैं रिश्ते। 
विश्वास का आधार ही कायम रखते हैं इन रिश्तों को। 
कुछ अगर रूठ जाते हैं तो ऊन्हें मनाना भी पड़ता है,
क्योंकि, कुछ रिश्ते अनमोल होते हैं। 
विषम परिस्थतियों में ही
सच्चे रिश्तों की पहचान होती है।
कई बार जब ख़ून का रिश्ता पास होते हुए भी दूर निकल जाता है,
तब दोस्ती की रिश्ता विषम परिस्थितियों में साथ निभाता है,
लगता है मानो यह जन्म-जन्म का रिश्ता है।
रिश्तों में ही बँधी होती है जीवन की डोर।
ये ख़ुशियाँ भी देते हैं, आँसू भी देते हैं और ग़ुस्सा भी देते हैं,
रिश्तों को जोड़कर ही हम हँसते-हँसते जीना सीखते हैं। 
हँसी-ख़ुशी जीने कि लिए 
रिश्तों में बँधकर रहना हीं हमें
आकाश में झुँड में उड़ते हुए 
उन्मुक्त पक्षियों की तरह
जीने की राह सिखाता है।
रिश्तों की डोर में जो बँधकर नहीं रहते,
परिवार, समाज से कटे रहते हैं,
उन्हें एकाकी जीवन बिताना पड़ता है।
ख़ुशमय जीवन 
जीने के लिए 
रिश्तों की डोर में बँधकर रहना ही पड़ता है।

विजय कुमार सिन्हा - पटना (बिहार)

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