अर्पित करना चाहूँ - कविता - इन्द्र प्रसाद

सूरज की किरणें जब आ करके जगाती हैं। 
कलियाँ प्रतिउत्तर में खिलकर मुस्काती हैं॥
ये मौन दृश्य सारा दिल को छू लेता है।
उस जगतनियंता की अनुभूति भी देता है॥
शत शत प्रणाम कर मन कहता रहता हर क्षण।
हे ईश मेरे! तुझसे पालित जग का हर कण॥
मन धन्य समझता है पाकर मानव जीवन।
अर्पित करना चाहूँ तुझ पर मैं तन मन धन॥

नदियों का सुमधुर स्वर कल-कल कर बहता है।
अपनी ही भाषा में निज गाथा कहता है॥
यह पिता हिमालय से उत्पत्ति बताता है।
उद्देश्य बना गंतव्य निज चरण बढ़ाता है॥
यह एक अकेली धुन में चलता सदा मगन। 
जल निधि हर लेता है इसका एकाकीपन॥
यह दृश्य प्रेम पूरित जब भी देखूँ भगवन।
अर्पित करना चाहूँ तुझ पर मैं तन मन धन॥

नभचर विहान में नित नव गीत सुनाते हैं।
जग को जागृत करने का धर्म निभाते हैं॥
जग के सारे प्राणी अंडज हो या पिंडज।
चर अचर जगत के हों या जग में फैली रज॥
सब अंश यहाँ तेरे सबको तूने जाया।
जो भी है दृश्य-अदृश्य सब है तेरी माया॥
यह मान गया अब मन सच्चा धन ईश भजन। 
अर्पित करना चाहूँ तुझ पर मैं तन मन धन॥

इंद्र प्रसाद - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos