अंतिम संस्कार का विज्ञापन - कहानी - मानव सिंह राणा 'सुओम'

विज्ञानपन देखा तो हिल गए राजमणी त्रिपाठी। “कैसा कलियुग आ गया है? अब माँ बाप के लिए बच्चों पर इतना समय नहीं कि वह उनको अपना समय दे सके और उनके अंतिम संस्कार में भी शामिल हो सकें।” मन ही मन सोचते हुए वह किचेन में काम करती हुई अपनी पत्नी कौशल्या देवी के पास पहुँच गए।

“सुनो कौशल्या ! देखो कैसे दिन आ गए है बुज़ुर्गो के? आज के इस अख़बार को तो देखो ज़रा। अब अंतिम संस्कार भी कम्पनी वाले ही करेंगे।” राजमणि त्रिपाठी ने अपनी पत्नी के आगे अख़बार करते हुए कहा।

“तो इसमें कौन सी नई बात है? जब बच्चे ही अंतिम संस्कार के लिए तैयार न होंगे तब कोई न कोई तो करेगा। किसी ने इसमें भी अपना कारोबार बना लिया।” कौशल्या देवी ने जैसे विज्ञापन का समर्थन करते हुए कहा।

“लेकिन हमारे युवाओ को इस बारे में सोचना चाहिए। क्या जिन माँ बाप ने उनकी परवरिश में अपना ख़ून पसीना लगा दिया, उनका अंतिम संस्कार भी अपने हाथों से नहीं कर सकते।” राजमणि त्रिपाठी ने कौशल्या देवी को निहारते हुए कहा।

“आपकी बात तो सही है लेकिन आपको याद है बगल की गली वाले मिश्रा जी जिनका लड़का कितने समय से लंदन में है उसने पैसा भेज दिया ख़ुद नहीं आया अपने पिता के अंतिम संस्कार में। मोहल्ले वालों ने ही अंतिम संस्कार किया। एक बात कहूँ मेरी समझ से तो बढ़िया ही है ऐसी कोई कम्पनी हो तो अंतिम संस्कार कम से कम सही से हो जाए।” कौशल्या देवी ने इस बार विज्ञापन का भरपूर समर्थन करते हुए कहा।

“तुम कैसी बात करने लगी कौशल्या ? क्या अब अंतिम संस्कारों के विज्ञापन भी भारत जैसे संस्कारवान देश में आएँगे? श्रवण कुमार के देश में माँ बाप के अंतिम संस्कार में भी औलादे शामिल न होंगी। राम और लक्ष्मण जैसे आज्ञाकारी पुत्रों की धरती पर बुज़ुर्गों का इतना बड़ा अपमान... नहीं, नहीं... ऐसा नहीं हो सकता।” बहुत उदास होते हुए त्रिपाठी जी ने कहा।

कौशल्या देवी ने किचेन का काम बंद कर दिया। वो समझ गई थीं कि त्रिपाठी जी व्यथित हो चुके हैं इस विज्ञापन को देखकर। त्रिपाठी जी का हाथ पकड़ कर उनको सोफे पर लाकर बिठा दिया। सही में तो पीड़ा कौशल्या देवी को भी विज्ञापन के बारे में सुनकर हुई थी पर उन्होंने ज़ाहिर नहीं होने दी।

त्रिपाठी जी को पानी पिलाकर कौशल्या देवी भी बगल में सोफे पर बैठ गईं।

“एक बात कहूँ त्रिपाठी जी अगर परेशान न होकर मेरी बात के मर्म को समझ सको तो। आप भावुक जल्दी हो जाते हो इसलिए पूछ रही हूँ।” कौशल्या देवी ने पूछा।

“हाँ,  हाँ ज़रूर कहो। ऐसी क्या बात है जो चेतावनी पहले दे रही हो?” त्रिपाठी जी ने पूछा।

“चेतावनी नहीं सच्चाई है त्रिपाठी जी। हमारे बेटे हर्षित को बंगलौर गए हुए आज लगभग पाँच वर्ष हो गए। आप कितना बीमार हुए पिछले वर्ष कितना बुलाया लेकिन बेटा नहीं आया क्युँकि उसके पास समय ही नहीं है... और तो और उसके पास हमें फ़ोन करने का समय तक नहीं हैं। तब क्या हम उम्मीद कर सकते है कि वो हमारी चिता को आग देने आएगा?” कौशल्या देवी ने कहा।

“तुम ठीक ही कह रही हो कौशल्या। आजकल बच्चों के मूड का कुछ पता नहीं चलता तुम्हारे सुझाव के बाद तो मुझे यह लगता है कि मैं भी इस कंपनी में बात कर ही लूँ जो बच्चे बीमारी में साथ खड़े नहीं हो सकते वह अंतिम संस्कार में यहाँ आएँगे इसकी गारंटी कौन लेगा? बेसहारा मर जाने से तो बढ़िया है ऐसी कंपनी के साथ करार कर लिया जाए जिससे हमारे रीति-रिवाज़ से अंतिम संस्कार हो सकें।” राज मणि त्रिपाठी ने कहा।

“हाँ बात करने में कोई हर्ज भी नहीं है... देखो जी कहीं ना कहीं हमारे कुछ संस्कारों में कमी रह गई जो बच्चे आज अपने मन से चलते हैं। हमारी सुनते ही नहीं और हमारी परवाह ही नहीं।” कौशल्या देवी ने कहा।

राज मणि त्रिपाठी कुछ देर सोचते रहे फिर कमरे के अंदर गए और मोबाइल उठा लाए मिला दिया कंपनी का नंबर।

उधर से किसी लड़की की आवाज़ आई, राज मणि त्रिपाठी ने अपना परिचय दिया और कहा “हमने आपका विज्ञापन देखा था तो मन में विचार आया कि हम भी इसकी जानकारी करें। हम कानपुर से बोल रहे हैं। क्या आपकी सेवाएँ कानपुर उत्तर प्रदेश में भी हैं?”

लड़की ने बताना चालू किया “जी बिलकुल अंकल जी! कानपुर में हमें उत्तर प्रदेश में सबसे ज़्यादा बुकिंग मिली हैं। आज का समय बड़ा बदल गया है। बच्चों के पास अपने काम धंधे से फ़ुर्सत ही नहीं है अपने माँ-बाप के लिए। इस परिस्थिति में हम बहुत सारे लोगों का सबकुछ होते हुए भी लावारिसों की तरह अंतिम संस्कार होते हुए देखते हैं।”...  लड़की ने फ़ोन पर एक गहरी साँस ली और बोलना जारी रखा।... “हमारी कंपनी के सीईओ श्रीमान त्रिपाठी जी इस बात से बड़े आहत हैं कि आज के समय की जनरेशन अपने माँ-बाप का भी ध्यान नहीं रख सकती। इसी बात को ध्यान में रखकर उन्होंने इस नए स्टार्टअप पर काम करना शुरू किया और आज पूरे हिंदुस्तान में बुज़ुर्गों के लिए अनूठा काम शुरू हो चूका है जिससे हमारे बुज़ुर्गों का अंतिम संस्कार समय पर और सही तरीक़े से हो सके।”

“अरे वाह आपके एमडी साहब की सोच बहुत अच्छी है। जहाँ नई जनरेशन के लोग अपने माँ-बाप की देखभाल के लिए समय नहीं निकाल सकते वहाँ उन्होंने बुज़ुर्गों के अंतिम संस्कार के लिए समय निकालने का अनूठा प्रयास किया है। आप और विस्तार से बता सकती हैं।” राजमणि त्रिपाठी ने पूछा।

“बता तो मैं भी सकती हूँ लेकिन मैं आपकी बात कम्पनी के सीईओ मिस्टर हर्षित त्रिपाठी जी से कराती हूँ। वो आपसे बात करके काफ़ी ख़ुश होंगे।”

जैसे ही हर्षित त्रिपाठी नाम सुना तो अपने हर्षित की याद आ गई। “कहीं वही तो नहीं। वो कैसे होगा जिसे अपने माँ बाप की क़द्र नहीं वो क्या ख़ाक दूसरों के माँ बाप के अंतिम संस्कार का प्लान करेगा...”

तभी दूसरी तरफ़ से एक जानी पहचानी आवाज़ गूँजी...

“हेलो! सर नमस्कार।”

पहचान गए राजमणि। ये आवाज़ तो उनके हर्षित की ही थी।

“नमस्कार”

“मैं आपकी कम्पनी के बारे में विस्तार से जानना चाहता हूँ।” त्रिपाठी जी ने हर्षित से अनभिज्ञ बनते हुए कहा।

हर्षित ने जैसे ही आवाज़ सुनी पहचान गया।

“पापा”

“मैं किसी का पापा नहीं हूँ। मुझे जानकारी दो अपनी कम्पनी के बारे में।” त्रिपाठी जी ने अनभिज्ञ बनते हुए कहा।

“पापा! मेरी बात तो सुनो...”
अपनी बात पूरी नहीं कर पाया हर्षित तब तक दूसरी तरफ़ से फ़ोन काट दिया गया।

दूसरे दिन दरवाज़े को किसी ने खटखटाया तो कौसल्या देवी ने दरवाज़ा खोला। बहू शीतल और अपने बच्चों कीर्ति और कृष्णा के साथ हर्षित दरवाज़े पर खड़ा था।

बरामदे में आकर सब बैठ गए। कौशल्या देवी की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। पाँच वर्ष बाद आज देखा था बेटा बहू और बच्चों को। दौड़कर पानी ले आई। कृष्णा को पानी अपने हाथ से पिलाते हुए सभी के हालचाल पूछ रही थीं। तभी राजमणि कमरे से बाहर निकल आए बच्चे बाबा से चिपट गए। त्रिपाठी जी की आँखों में आँसू आ गए।

बहू बेटा ने झुककर पैर छुए। आशीर्वाद देकर एक तरफ़ बैठ गए त्रिपाठी जी।

“पिताजी मुझे माफ़ कर दो। जब आप बीमार थे मैं न आ सका। मैं कभी समय निकाल कर आपके हाल चाल भी न पूछ सका।” हर्षित ने आँखों में आँसू भरकर कहा।

“अब इन बातों के मायने क्या हैं? हमें तुमसे कोई गिला शिकवा नहीं है। हम हैं ही कौन तुम्हारे? हम जैसे है वैसे ही ठीक हैं। एक दो दिन के लिए तुम आए हो पिछली बातो को भूलकर रहो जिससे तुम्हें और हमें कोई दर्द ना हो। रही बात हमारी तो हमें अकेले रहने की आदत पड़ गई है।” त्रिपाठी जी ने थोड़े कर्कश स्वर में कहा।

“आपका कहना उचित है पापा लेकिन मुझे आपसे कुछ कहना है। मुझे आप कह लेने दो।” हर्षित ने गिड़गिड़ाते हुए कहा।

“हाँ... हाँ... कहो बेटा! अब तुम्हारी ही सुनने के लिए तो हम ज़िंदा हैं और किसकी सुनेंगे।” त्रिपाठी जी ने ताना देते हुए कहा।

“अब आपस में बात ही करते रहोगे या नाश्ता भी करोगे। आओ दोनों। बहू और मैंने नाश्ता लगा दिया है।” तख़्त पर शीतल ने नाश्ता लगा दिया था। त्रिपाठी जी, हर्षित और बच्चे सभी तख़्त के चारों ओर बैठ गए और नाश्ता करने लगे।

एक बार की छूटी बात फिर पुरे दिन न हो सकी। गाँव में जिसने भी सुना वही मिलने चला आया। पुरे दिन मिलना-जुलना चलता रहा। रात्रि के खाने के बाद त्रिपाठी जी की चारपाई पर आकर हर्षित ने पैर दबाना शुरू कर दिया। त्रिपाठी जी ने कोई विरोध नहीं किया। शाम होते होते त्रिपाठी जी का ग़ुस्सा दूर हो गया।

“मुझे माफ़ कर दो पापा। मैं यहाँ से जाने के बाद नौकरी कर रहा था बंगलौर में लेकिन कोरोना आने के बाद कम्पनी ने छटनी की और मेरी जॉब जाती रही। काम की तलाश कर रहा था तो एक दिन मैंने एक न्यूज पढ़ी जिसमे कोरोना से मृत्यु के बाद एक बुज़ुर्ग का अंतिम संस्कार कोई करने को तैयार नहीं था तो बस मन में विचार आया कि एक ऐसी कम्पनी बनाए जिसमें हम ऐसे लोगो का अंतिम संस्कार करें जिनका कोई ना हो। बस उसको मूर्त रूप देने में इतना व्यस्त हुआ कि अपने ही माँ बाप को भूल गया। जब आपका कल फ़ोन पहुँचा तो बड़ा दुःख हुआ कि दुनियाँ की चिंता करते करते अपने माँ बाप को इस हालात में छोड़ दिया कि मेरे पापा को जीते जी अपने अंतिम संस्कार के बारे में सोचना पड़ा। बस फिर हमने पहली फ्लाइट पकड़ी और आ गए हम यहाँ। हमें माफ़ कर दो पापा। अब हम आपको और माँ को छोड़ कर कहीं नहीं जाएँगे। अब कम्पनी का हेड ऑफ़िस भी अपने कानपुर में अपने गाँव में ही बनाएँगे जिससे अपने लोगों को रोज़गार भी मिल सके।” हर्षित ने रोते हुए अपने पिता और माँ को सारी कहानी सुनाई।

राजमणि त्रिपाठी ने हर्षित को गले से लगा लिया। कौसल्या देवी ने हर्षित को गले लगाते हुए कहा “सुबह का भूला अगर शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते।”

सभी बात करते करते सो गए।

मानव सिंह राणा 'सुओम' - रोहिना सिंहपुर, अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos