देखा मैंने सब कुछ - कविता - बंदना ठाकुर

सुबह की रोशनी से लेकर
रात के अँधेरे तक।
दिन के सच से लेकर 
निशी के झूठ तक।
चक्षुओ में झलकते अंभ से लेकर उनके शुष्क होने तक।
चेहरे पर बसी अद्भुत मुस्कान से लेकर
उसके ओझल होने तक।
देखा मैंने सब कुछ
हाँ हाँ सब कुछ।
रिश्तो के जन्म लेने से लेकर उसके मृत्यु तक।
पहचान बनने से लेकर 
उनके बिगड़ने तक।
सफलता की दौड़ में भागने से लेकर 
अंत में बैठे टीस तक।
लोगों के हाथ पकड़ने से लेकर उनके हाथ छोड़ने तक।
अपने को अपने से लेकर 
बेगाना बनने तक।
हाँ हाँ देखा मैंने सब कुछ।
इस भीड़ भरे संसार से ख़ुद को अकेला पाने तक। 
हाँ हाँ देखा मैंने सब कुछ।

बंदना ठाकुर - पूर्व बर्धमान (पश्चिम बंगाल)

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