गुज़रते मेरे पड़ाव - कविता - डॉ॰ रवि भूषण सिन्हा

धीरे-धीरे मैं भी तो,
जीवन की पैड़ी पर चढ़ता चला गया।
समय की उँगली पकड़,
आश्रमों की दहलीज़ तक पहुँचता चला गया।
धीरे-धीरे मैं भी तो,
जीवन की पैड़ी पर चढ़ता चला गया।

था अबोध मैं भी तो,
माँ की गोद में हर पल बढ़ता चला गया।
अपनो की उँगली पकड़,
धर पर धर-धर चलता चला गया।
धीरे-धीरे मैं भी तो,
जीवन की पैड़ी पर चढ़ता चला गया।

मध्य बचपन में आया मैं भी तो,
स्कूलों-कॉलेजों में शिक्षा लेता चला गया।
उपाधियों की कड़ी पकड़,
ब्रह्मचर्य जीवन पार करता चला गया।
धीरे-धीरे मैं भी तो,
जीवन की पैड़ी पर चढ़ता चला गया।

बच्चों से परिवार बढ़ाया मैं भी तो,
परवरिश कर सबको राह दिखाता चला गया।
अपने ज्ञान और संस्कार को जकड़,
गृहस्थ जीवन का दायित्व निभाता चला गया।
धीरे-धीरे मैं भी तो,
जीवन की पैड़ी पर चढ़ता चला गया।

अपनी तीसरी पीढ़ी देखा मैं भी तो,
आनंदों में परम आनंद प्राप्त करता चला गया। 
अपनी पारिवारिक ज़िम्मेवारी छोड़,    
वानप्रस्थ के लिए समर्पित होता चला गया।
धीरे-धीरे मैं भी तो,
जीवन की पैड़ी पर चढ़ता चला गया।

वृद्धावस्था में बचपना पाया मैं भी तो,
मोह, बोझ से हट तरोताज़ा होता चला गया।
ईश्वरीय भावना ह्रदय में गढ़,
संन्यासी जीवन का आनंद उठाता चला गया।  
धीरे-धीरे मैं भी तो,
जीवन की पैड़ी पर चढ़ता चला गया।

डॉ॰ रवि भूषण सिन्हा - राँची (झारखंड)

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