सौ के नोट - कहानी - हर्ष वर्धन भट्ट

परकोटे से निकलकर चौदह वर्ष का उमा जैसे ही अपने बाप के डर से आम रास्ते पर आया, तो मस्ती में गुनगुनाता चलने लगा। कभी वह रास्ते पर पड़ी कंकरीट को उठाकर पेड़ो पर बैठी चिड़चिड़ाती, चहचहाती पंछियों को एक-एक कर कंकरीट से भगाता, फिर इधर-उधर दौड़ कर पंछियों को झपट्टा मार कर पकड़ने का असफल प्रयास करता। चिड़िया एक पेड़ से उड़कर दूसरे पेड़ की शरण ले लेती और कोई फुर्र से उड़कर पास में दीवाल पर बने छेदों के बीच में अपने घोंसलों में छुप जाती। उमा अभी भी कंकरीट उठा कर दूर खड़े पेड़ो पर फेंकता जाता, और इधर-उधर ताका-झाँकी करता। इसी ताका-झाँकी में उसे रास्ते पर पड़े सौ के नोटों को देखा, नोट तीन थे। उमा समझ रहा था कि ये सौ के ही नोट होंगें। पहिले तो वो हिचकिचाया, फिर इधर-उधर देखकर नोटों के पास आकर आँखों से घूरा और चटपट उठा लिया।
उमा समझ रहा था की किसी ने उसे नोट उठाते हुए नहीं देखा, परन्तु दूर से अपने घर की ओर आते भगतराम और भीरस ने देख लिया था परन्तु समझ नहीं पाए होंगे! उमा ने झटपट नोटों को जेब के हवाले किया और उसी हड़बड़ाहट के साथ मन ही मन ख़ुश हो गया।
इसी जगह के कुछ दूरी ओर लखनु का घर था उमा जल्दी जल्दी से वहाँ जाकर घबराहट में थरथराने लगा। फिर लखनु के पास आकर चुपचाप मन की बात बोलने लगा। 
“मैं एक चीज़ बताऊँ किसी से बताएगा तो नही?”
“बता न... सच में किसी से नही बताऊँगा” लखनु उत्सुकता दिखाते बोला।
“रास्ते में मैंने अभी सौ के तीन नोट पाए, तुम्हारे तो नहीं है?”
“क्या?” लखनु अविश्वास और अचंभे से बोला।
“हाँ हाँ मेरी जेब में है” उमा ने जेब में रखे नोटो की नोक ही लखनु को दिखाए। लखनु को नोटो का हल्का हरा रंग देखकर विश्वास आ गया।
लखनु का बाप ही पूरे गाँव में एक मात्र सरकारी नौकरी पर था। वही घर ख़र्च के लिए शहर से मनी आर्डर के द्वारा पैसा भेजा करता। हालाँकि लखनु को पता था कि जिस दिन पोस्टमैन रुपए ले कर आया, उसी दिन उसकी माँ ने लाला जी का सारा हिसाब चुकता कर दिया था। फिर ये नोट रास्ते पर कहाँ से आए, लखनु हताश हो गया और उमा से ईर्ष्या होने लगी कि बिना कुछ करे धरे, उमा को सौ के नोट मिल गए। तब तक भगतराम और भीरस भी पास आ गए, और लखनु चटपट बोला “अरे भगतू, उमा के पास सौ के नोट” और उमा कनखी से दोनो की हरकतें देख रहा था, और साथ में लखनु को कोस भी रहा था। भगत राम भीरस को विश्वास नहीं हुआ और चलते बने। बात उमा और लखनु के बीच ही लटकी रही ।
उमा नोट जेब में दबाए दौड़ा-दौड़ा घर के पिछवाड़े आया, देहढ़ी पर दीदी को नोट दिखाकर जल्दी-जल्दी हाँफकर बोला “दीदी सौ के नोट, मैंने पाए, लखनु के घर के नीचे रास्ते में...”
दीदी बिना देखे विश्वास कर गईं, दौड़ी-दौड़ी माँ के पास गई और बोली “माँ देखो तो भैया के पास सौ के नोट, कितने सारे नोट... हूँ... हूँ…” और हँसने लगी।
माँ को पहिले विश्वास नहीं हुआ फिर उमा को पास बुलाकर पूछने लगी “सच रे उमा?”
“हाँ हाँ माँ, वो लखनु के घर के नीचे रास्ते में मिले।” उमा फुसफुसा कर बोला।
माँ ने सचमुच उमा के हाथ पर सौ के तीन नोट देखकर बोली “एक सौ का नोट मुझे दे दे और बाक़ी अपने बापू को”।
उमा ने जल्दी से तीन नोटो में से एक नोट निकालकर माँ के हाथ में रखा, दो नोट अभी भी उमा की जेब में सलामत थे!
“पता नहीं कौन सा भाग फूट पड़ा आज हमारे घर में “उमा की माँ ने कुड़-कुड़ कर नोट को भीतरी जेब के हवाले कर दिया, उससे पहिले उसने नोट को रूमाल के फटे टुकड़े में लपेटकर बाँध दिया था, और ख़ुशी-ख़ुशी अपने काम पर चलने लगी। कुछ देर बाद सोचकर उमा की तरफ़ मुड़ी, और बोली “अरे उमा तूने किसी को बताया तो नही?”
उमा लापरवाही से बोला “नही तो…”
माँ पुनः ख़ुशी से अपने काम पर चली गयी। उमा की दीदी उत्सुकता से यह सब देख रही थी।
***

उमा का बापू एक कृषक था, अनपढ़! अ अक्षर के नाम पर वो कुछ भी नहीं जानता था। अपनी घरवारी ही उसका स्कूल था और गाय भैंस ही उसके अक्षर। बहुत ग़रीब होते हुए भी उसकी जीविका अच्छी चल रही थी। नोट ठीक से पहचानना या पढ़ना उसे नहीं आता था, जिसे वह बहुत बड़ी बात मानता था।
उमा जैसे ही उसके पास से गुज़रा तो वह घर के सामने दरवाज़े की चौखट पर बैठ कर बड़ा सा हुक्का लिए तम्बाकू गुड़गुड़ा रहा था। बड़ी-बड़ी मूँछें देखकर उमा पहिले ही उससे डरता था, बापू से बात भी करता तो छुप-छुप कर। इस दशा में वह बापू के सामने खड़े होने का साहस कैसे करता।
उमा ने जेब में हाथ डाला तो नौट अभी भी सुरक्षित थे।
माँ ने बापू को सौ के नौट देने को कहा तो कौन सा बहाना लेकर! अगर सीधे तरीक़े से पकड़ा दूँ तो बापू इसे चोरी कहेंगे, उसे याद आया- 
पिछली बार बापू एक गाय बेचकर आए थे और ख़रीदार ने अभी तक पूरी क़ीमत चुकता नहीं की थी। यही बहाना लेकर बापू को नौट देने जाएगा, बाद की बात बाद में ही देखी जाएगी।
फिर वह अपने बापू के पास जाकर साहस कर बोला,
“बापू सौ के नोट, ढीगरु ने दिए गाय के”
“हूँ, कब दिया रे?” बापू गुर्राया “तेरे पास हैं? इधर ला”
 इससे पहिले बापू कुछ और पूछते उमा ने तुरंत नोट थमा कर, फिर से दीवाल के पीछे छुप गया।
“अरे उमा, साले ने कुल दो सौ ही दिए क्या...? खाल खीचूँगा, बच्चे, बच्चा समझ कर कम रुपये? शाम को घर पर ही जाना पड़ेगा। कितने महिने हो गए तब से, चुप ही तो था मैं, समझा दूँगा शाम को! अरे उमा मेरी लाठी दे तो”
और नोटों को कपड़े के टुकड़े में बाँध कर फटे पुराने कुर्ते के जेब में डाल दिए।
उमा लाठी देकर दौड़ा -दौड़ा वहाँ से चला गया।
***

उमा का बापू लाठी ले कर बाज़ार की तरफ़ का रास्ता पकड़ लिया। लाठी को रास्ते में ठक-ठक कर भरी जवानी में ही बुढा गया था। रास्ते मे कभी वह लाठी को अपने कुर्ते के पीछे कॉलर पर फँसा कर चलता या ठक-ठक कर रास्ते में आए, सुस्ताए जीव जंतुओं को सचेत करता। चलते-चलते उसने रास्ते में बहते धारे का पानी पिया, और फिर लंबे-लंबे डग भरने लगा।
लालाराम (लाला जी) की दुकान पर पहुँच कर उसने अपनी लाठी एक तरफ़ कोने में टिका दी, और दो हाथ प्रणाम किया और लाला जी का हाल चाल पूछने लगा।
लाला जी जबाब में हूँ हा करके बोले “क्यों रामू काका, क्या हाल है?... हमारा हिसाब किताब कब चुकता करोगे? क्यों अगर है तो दे दो, नही हैं तो उसका क्या करना।”
रामू तैयार था “नहीं लाला जी अभी लो, आज मेरे पास है, धींगरु ने गाय के चुकता कर दिए हैं” कुर्ते की जेब से पोटली निकाली, और खोल कर सौ के दो चमचमाते नोट लाला जी के हाथ में रख दिए।
लालाराम के नाक के कोने पर सधे चश्मों ने अच्छे-अच्छे नोट देखकर सीधे तिजोरी के हवाले कर दिए।
उमा का बापू (रामू) हिसाब में दो सौ के नोट दर्ज कराकर घर की ओर लौट पड़ा।
***

लालाराम नोटों को पाकर ख़ुश हो गया, सोचने लगा कि कल ही तो मैंने रामू को चेतावनी दी थी, हिसाब जल्दी चुकता करने को। फिर आदमी हो तो रामू जैसा, आज उसे उमा के बापू, रामू पर स्नेह भी हो आया था- हद्द तक!
उसी समय रोबीला लालाराम के यहाँ आया और बोला “लाला सौ के नोट का छुट्टा दे दो”
लाला ने पहिले आनाकानी की परन्तु फिर रोबीला के अनुरोध पर तिजोरी खोली और आज की कमाई के एक एक नोट को गठरी बना कर गिनने लगा। उसने सौ, पचास, दस और एक रुपये के नोटों की अलग-अलग गठरी बनाई।
रोबीला एक टक यह सब देख रहा था। रोबीला पढ़ा लिखा था तो नोटों को अच्छी तरह पहिचानता था। विशेषकर सौ के नोटों पर उसकी नज़र टिकी थी, सबसे ऊपर वही चमचमाता नोट था जो अभी-अभी उमा का बापू (रामू) दे गया था। रोबीला एकाएक बोल पड़ा “लालाजी, मैं इस नोट को देख सकता हूँ?” वह नोट छूकर बोला, क्योंकि उसे नोट के चमचमाते पन पर संदेह हो गया था। रोबीला नोट खींचकर गौर से देखने लगा। उस पर “बच्चों का राष्ट्रीयकृत बैंक” देखकर एकाएक बोला “लाला जी यह नोट तो नकली है”
लाला ने अविश्वास से नोट लेकर गौर से देखकर कर बोला “क्या? भला चंगा तो है, तुझे कहाँ से नकली नज़र आ रहा है?”
“अरे लाला, ज़रा गौर से देखो, लाला हो गया और अभी तक असली नकली की पहिचान नहीं है! देख इसे पढ़ो” और अंगुली से जहाँ बच्चों का राष्ट्रीय कृत बैंक लिखा था वहाँ इंगित करने लगा।
“अरे तब तो एक और भी होगा!” लालाराम एकाएक निराश हो कर बोला और जल्दी-जल्दी गठरी में से दूसरा नोट निकाल कर अपने नौकर प्यारे को आवाज़ दी। नोट सचमुच में नकली थे।
“अरे प्यारे जल्दी जा रामू काका के घर, और इन काग़ज़ के टुकड़ों को ले जाकर कह कि ये नकली नोट हैं, जा जल्दी जा... स्साला... रामू।” और रामू का खाता निकालने लगा।
प्यारे दौड़ा-दौड़ा रामू के घर आया, परन्तु घर पर पहुँचते-पहुँचते रामू ढीगरु के यहाँ चला गया था। घर पर उमा की माँ के सामने जोर से बोला “क्यों ठगने के लिए हमे ही मिले थे? हैं? क्या नकली नोटों की खान लगा रखी है घर पर? चले आते हैं हिसाब चुकता करने, ये हैं तुम्हारे नोट, कल हमारा हिसाब चुकता कर दो हाँ! बता देना रामू को”
प्यारे नोट हवा में उड़ा कर चला गया।
उमा भी घर पर नहीं था, पास में दीदी खड़ी थी। दीदी ने नोटों को उठा कर  चुपचाप माँ के हवाले कर गई। उमा की माँ ने नोटों को अपनी आँखों से गौर से देखा, असली और नकली? कुछ पता नहीं! और अपनी पोटली से तीसरा नोट निकालकर तीनों की गड्डी बना कर फिर से रुमाल के कपड़े में बंद कर अपने भीतर के जेब में डाल कर उमा के बापू के आने का इंतज़ार करने लगी।

हर्ष वर्धन भट्ट - फ़रीदाबाद (हरियाणा)

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