डोर छोड़ी नहीं जाती है प्रेम की - कविता - अशोक कुमार कुशवाहा 'पाटल'

डोर छोड़ी नहीं जाती है प्रेम की,
नाम जग में बड़ा है, प्रीत नाम की।
दूर उनसे हमारी दशा है वही,
व्याकुल रहे हृदय जैसे बिन प्रीत की।
डोर छोड़ी नहीं जाती है नीत की॥

उसके धड़कन से साँसे चले प्राण की,
उसके चलने से शान चले नाम की।
जीने लगे साथ-साथ नाज़ की,
बिन प्राणों के क़ीमत नहीं साज की।
डोर छोड़ी नहीं जाती है रीत की॥

राहें विरान लगने, लगीं हैं चमन की,
सूना-सूना लगे पनघट रजक बिन।
सूनी-सूनी लगें कलियाँ कुसुम बिन,
सताने लगीं हैं ये यादें मिलन की।
डोर छोड़ी नहीं जाती है मीत की॥

अशोक कुमार कुशवाहा 'पाटल' - जबलपुर (मध्यप्रदेश)

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