आओ फिर से दिया जलाएँ - कविता - संजीव चंदेल

अंधकार का सीना चिरकर,
तिमिर की छाती पर चढ़कर,
झूम-झूम कर नाचे गाएँ,
आओ फिर से दिया जलाएँ।

ग़म की काली घटा छट जाए,
ख़ुशीयों का सुरज उग आए,
वीरान ज़िंदगी जश्न मनाएँ,
आओ फिर से दिया जलाएँ।

झोपड़ीयों में भी रोशनी हो,
हँसी हो मीठे बोल की चाशनी हो,
मासूमों के चेहरे ख़ुशी से खिल जाए,
आओ फिर से दिया जलाएँ।

संजीव चंदेल - अकलतरा (छत्तीसगढ़)

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