विजय कामना - कविता - सौरभ तिवारी 'सरस्'

स्वाँस है बाक़ी अभी,
विश्वास है बाक़ी अभी।
हरगिज़ विजय की कामना
दिल से निकालूँगा नहीं,
मैं हार मानूँगा नहीं।
मैं हार मानूँगा नहीं॥

स्वाँस है तो आस है,
आस में विश्वास है।
विश्वास ही तो जीत है,
जीत ही में गीत है।
विचलित करे जो लक्ष्य से,
वह स्वर निकालूँगा नहीं।
मैं हार मानूँगा नहीं॥

काली घटाएँ घोर हों,
या बिजलियों के शोर हों,
मूसल भयावह धार हो,
बहतीं नदीं अपार हों,
हो राह में मजधार भी,
हरगिज़ निहारूँगा नहीं।
मैं हार मानूँगा नहीं॥

हो मृत्यु से भी सामना,
पाऊँ न मैं शुभकामना।
रख आसरा जगदीश पर,
अरि-असि रखी हो शीश पर,
कट जाए सिर हरगिज़ मगर
हथियार डालूँगा नहीं।
मैं हार मानूँगा नहीं॥

बाजू अभी तक शेष हैं,
कुछ भी नहीं अशेष हैं।
है हौसला मन में अभी,
तो दाँव इक फिर से सही।
रण मैं विजय का ईश से
वरदान माँगूँगा नहीं।
मैं हार मानूँगा नहीं॥

हो समर जीवन अगर,
विपरीत है सबकुछ मगर।
हों गीध की परछाइयाँ,
चुभती हुई रुसवाईयाँ,
अंतिम समय तक जीत को,
दिल से बिसारूँगा नहीं।
मैं हार मानूँगा नहीं॥

ना याचना ना स्मरण,
रण है वरण तो सिर्फ़ रण।
या तेरी जय या मेरी जय,
इस बात का किसको है भय?
बिन जीत के अब स्वर्ग तो
हरगिज़ सिधारूँगा नहीं।
मैं हार मानूँगा नहीं।
मैं हार मानूँगा नहीं॥

सौरभ तिवारी 'सरस्' - करैरा, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

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