छोड़े पीछे दीप हज़ारों, सूरज को जब निद्रा आए,
अलसाया था जड़ चेतन, वह शब्दों से ख़ूब जगाए।
प्रज्वलित है वह उष्ण दिवाकर, धरा धरोहर वाकी है,
जिसकी तुमको आज ज़रूरत, आग अभी वह बाक़ी है।
शब्दों के वाण से, जिसने झकझोर दिया,
नहीं कभी तलवार उठाई, नहीं कभी कोई शोर किया।
युग पुरुष बनकर जिसने, इतिहास में खींची बड़ी लकीर,
देशप्रेम की ज्योति जलाने, निकला लेकर शब्दों की शमशीर।
जो कर डाला शब्दों ने, न तलवारों ने किया वो काम,
तुम सचमुच युग हो, हे राष्ट्रकवि! तुम्हें प्रणाम।
गोकुल कोठारी - पिथौरागढ़ (उत्तराखंड)