फिसल के उतरी आसमाँ से
बदरा के सीने पीर धरी
गिरि के काँधों से कूद पड़ी
किरणे वसुधा की गोद गिरी
पत्ते फूलों हर गली उपवन
आई अभयारण्य में छन-छन
मुरझाई कोपल को छूकर
वह सींच रही है नव जीवन
सागर की लहरों छिटक रही
मोती बिखरे जल के तन पर
टकराई जब गीले रेतों से
सब चमक उठे जुगनू बन कर
दीपक ने फिर से राहत ली
कोई अब उसके दर होगा
किरणों का संगम हर घट से
अति पावन अति सुंदर होगा।
चन्दन दुबे - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)